जालोर के इतिहास प्रसि) वीर यो)ा वीरमदेव का जन्म किस सन् सम्वत् में हुआ तथा किस तिथि वार को हुआ, इस विषय में इतिहास मौन है। “वीरमदेव सोनीÛरा री बात” और “मुंहता नै.ासी री ख्यात” दोनों इस विषय में मौन है। इस कार.ा से वीरमदेव का जन्म कब हुआ, यह कहना आज कठिन है। इतिहास के विद्यार्थियों के लि, यह प्रश्न है। चैहान वंश की जन्मÛाथा लिखने वाले तथा चैहान कुल कल्पद्रुम के लेखक लल्लु भाई देसाई ने भी इस विषय में असफलता ही प्राप्त की है। जालोर के चैहान नाडोल से जालोर आये थे। राव लाख.ासी जिसे लाख.ासी भी कहा Ûया है, उसने नाडोल पर चैहान राज्य की स्थापना की थी। लाख.ासी का पु= आसरा हुआ, जो नाडोल का राजा हुआ। इसकी संतानों में सोनÛरा चैहान, वाव चैहान आदि कई खांपें(Ûो=) बतलायी Ûयी है। लाख.ासी सांभर से आया था। इसी लाख.ासी के परिवार में कीतू अथवा कीर्तिपाल का जन्म हुआ। उस कीतू ने नाडोल से अलÛ होकर जालोर में अपना राज्य स्थापित किया। कीतू अथवा कीर्तिपाल के पु= का नाम समरसिंह था। कीतू को शुरूआत में नारलाई के 12 Ûांवों की जाÛीर मिली थी, परन्तु उसने अपने पराक्रम से जालोर के तथा कीराडु के परमार राजाओं को पराजित कर अपना अलÛ राज्य स्थापित किया। कीतू ने अपना राज्य स्र्व.ाÛिरी पहाड़ पर अथवा सोनÛरा पहाड पर स्थापित किया, इस कार.ा से कीतू के वंशज सोनÛरे चैहान कहलाये। कीतू ने जालोर के परमार राजा कुंतपाल, सिवा.ाा के राजा वीरनाराय.ा आदि को पराजित किया। कीतू का बेटा समरसिंह हुआ। समरसिंह का बेटा मुंहता नै.ासी री ख्यात के मुताबिक अरीसिंह हुआ। अरीसिंह का पु= उदयसिंह हुआ। जिसके उपर अलाउदीन खिलजी के चाचा जलालुदीन खिलजी ने सम्वत् 1298 की मा?ा सुदी पांचम को हमला किया था। उदयसिंह ने उस हमले का जोरदार जवाब दिया और जलालुदीन खिलजी को जालोर से भाÛना पड़ा। उस अवसर पर खुंदाकाचड ने ,क दोहा कहा था जो निम्न प्रकार है - “सुंदरसर असुरह दले जलपीयो वे.ोह, ऊदे नरपद काढीयो तस नारी नय.ोह” इस उदयसिंह का पु= जसवीर हुआ। जसवीर का बेटा करमसी हुआ और करमसी का बेटा चाचींÛदेव हुआ, जिसने संुधा के पहाड़ पर मन्दिर बनाया। इसके अलावा सेवाड़ा के पातालेश्वर मन्दिर को भी उसने बनाया। उस मन्दिर में ,क शिलालेख इस विषय में मिलता हैै, जिसमें चाचींÛदेव का उल्लेख है। सेवाड़ा का वह पातालेश्वर मन्दिर भी शिल्प की दृष्टि से अपने आप में अनूठी मिसाल है। उस शिलालेख के अनुसार सम्वत् 1308 में वैशाख वदी तीज को वहां निर्मा.ा प्रारम्भ किया Ûया था। इसी प्रकार से जसवंतपुरा के पास संवत् 1230 के ,क ख.िडत मन्दिर का उल्लेख मिलता है। ,ेसा कहा जाता है कि वह मन्दिर दशावतार का मन्दिर था। इस मन्दिर को कृष्.ा के इन्द्रप्रस्थ से }ारका जाने वाले मार्Û की स्मृति के रूप में बनाया Ûया था। चाचींÛदेव का पु= सामंतसिंह हुआ। सामंतसिंह के 5 पु= हु,, जिनके नाम कान्हडदेव, व.ावीर, सालजी, डरराव, Ûोकलीनाथ और मालदेव है जो सिरोही राज्य के राजपुरोहित की पुस्तक में लिखे हु, मिलते हैं जबकि सिरोही राज्य के इतिहास की पुस्तक में सांमतसिंह के दो पु=ों का नाम मिलता है, कान्हड़देव और मालदेव। कान्हड़देव के पु= का नाम वीरमदेव मिलता है। मालदेव के विषय में यह कहा जाता है कि वह कान्हड़देव का भाई था और इतिहास में मुछालामालदेव के नाम से प्रसि) हुआ। इस प्रकार का ?ाटनाक्रम इतिहास में मिलता है।
कीतू को जलन्धरनाथ योÛी ने पारसम.ाी दी थी और इस पारसम.ाी के आधार पर उसने जालोर के Ûढ को बंधवाया था। पारसम.ाी का उल्लेख कान्हड़देव प्रबन्ध में भी आता है कि कान्हड़देव ने पारसम.ाी को झालर बावडी में डाल दिया था। आज भी कई लोÛ पारसम.ाी की आशा में जालोर किले में भटकते रहते है। जालोर का किला कीतू }ारा 1232 में बंधवाया था। इस बात का उल्लेख चैहानों का भाट वजेचन्द अपनी पुस्तक में इस प्रकार से करता है - “बारासै बत्तीसे परठ जालोर प्रमा.ा, तें कीदि कीतू जिंद राव त.ाा Ûढ अडÛ चहुआ.ा-” कीर्तिपाल का देहान्त संवत् 1235 से 1239 के बीच किसी यु) में होना बताया जाता है। यह यु) भी मुसलमानों के साथ हुआ था। इसके पु= समरसिंह के विषय में यह जानकारी मिलती है कि कनकाचल अर्थात स्र्व.ाÛिरी पर उसने कोट बनाया था और इस कोट पर दूर-दूर तक Ûोले फेंकने वाले यं= लÛाये थे अर्थात तोपें समरसिंह ने लÛा दी थी। इसने समरपुर नामक ,क शहर भी बसाया था, जहां उसने सुन्दर बÛीचा लÛाया था। यह समरपुर क्या सुमेरÛढ खेड़ा है, जो बिबलसर के पास आया हुआ है। यह भी बताया जाता है कि इसने जालोर में दो शिव मन्दिर बनाये थे। इसकी बहिन रूदलदेवी का विवाह Ûुजरात के दूसरे राजा भीमदेव सोलंकी के साथ हुआ था, ,ेसा ,क शिलालेख जालोर की भोजकालीन परमार पाठशाला में लिखा Ûया है। जालोर के राजाओं को रावल की पदवी थी। इसी समरसिंह के पु= मानसिंह उर्फ मा.ाी ने सिरोही राज्य की स्थापना की। इसी समरसिंह के बड़े पु= उदयसिंह ने जालोर राज्य का विस्तार किया। उदयसिंह बड़ा पराक्रमी था। इसके राज्य में नाडोल, जालोर, म.डोर, बाड़मेर, सुराचन्द, राडहट, रामसी.ा, रतनपुर आदि कई {ौ= थे। उदयसिंह ने जालोर में दो शिवालय बनाये थे। ,क शिवालय सांडबाव के पास था, इसका नाम सिंधुराजेश्वर मन्दिर था। यह सिंधुराज को मारने की स्मृति में बनाया Ûया था। वर्तमान में इस स्थान पर पुलिस थाना, ,क दरÛाह, ,क व्यायाम शाला बनी हुई हैं। इस मन्दिर परिसर के चारों तरफ कोट था। मन्दिर के बाहर सिंधुराज की बाव सांडबाव थी। मन्दिर के चारों तरफ कोट होने से कोटेश्वर महादेव भी इसका नाम कहा Ûया हैं। आज भी इस स्थान पर खुदाई होने पर पुराने अवशेष मिलते हैं। जिसमें से कई जालोर के पुस्तकालय में सुर{िात रखे Ûये है। इसी स्थान से किसी समय विष्.ाु भÛवान तथा ल{मीजी की प्रतिमा भी निकली हुई है जो वर्तमान में सायरपोल के अन्दर स्थापित है। इसी उदयसिंह के }ारा दूसरा मन्दिर जाÛनाथ महादेव का बनाया Ûया था। इस सम्बन्ध में वहां पर टूटे फूटे शिलालेख आज भी मिलते हैं। उदयसिंह का पु= चाचींÛदेव बड़ा वीर था। इसने सुंधामाता का मन्दिर, सिरोही में मातरमाता का मन्दिर बनाया। चाचींÛदेव का पु= सामंतसिंह हुआ। जिसका पु= कान्हडदेव हुआ। विक्रम संवत् 1368 में जालोर का किला टूटा। इस बात का उल्लेख विक्रम संवत् 1545 में लिखे कान्हड़देव प्रबन्ध में मिलता है। कान्हड़देव ने बादशाही फौज को Ûुजरात में जाने का रास्ता नहीं दिया था। इससे नाराज होकर बादशाह अलाउदीन खिलजी ने जालोर के किले पर ?ोरा डाला और वीका दहिया नामक व्यक्ति को अपने प{ा में लोभ देकर मिला दिया। इसका र्व.ान करते हु, पदमनाभ कहता है -
“सेजवालि Ûढ कार.िा करी, पापी पापबु)ि आदरी।
लोभइ ,क विटालइ आप, लोभइ ,क करइ ?ा.ा पाप।।”
वीका दहिया }ारा किये Ûये इस विश्वास ?ाात को उसकी पत्नी हीरांदे ने अस्वीकार किया। हीरांदे ने जो काम किया वह इतिहास में स्र्व.ा अ{ारों में लिखने लायक है। हीरांदे ने अपने पति वीका को कहा कि चंडाल तू मुंह दिखाने लायक नहीं है, जिसने तेरे पर विश्वास किया, वह विश्वास तुमने भंÛ किया, मेरी सास के Ûर्भ से तेरे जÛह ,क जहरीले नाÛ का जन्म हुआ और इसी के साथ हीरांदे ने खडÛ उठाया और वीका का सिर काट दिया। काटे हु, सिर को र.ाचंडी की तरह हाथ में पकडऋ कर Ûढ के अन्दर भाÛ कर Ûयी। कान्हड़देव को सूचना की, कि वीका दहिया ने विश्वास ?ाात कर दिया है और उसी के साथ यु) का ,ेलान हुआ।
इस यु) में सोनÛरा चैहानों के साथ कान्धल देवड़ा, उलेछा कान्धल, ल{ाम.ा सोभात, जेता देवड़ा, लू.ाकर.ा, जेता वा?ोला, अर्जुन विहल, मान ल.ावाया, चांदा विहल, जेतपाल, राव सातल, सोमचन्द व्यास, सला राठौड़, सला सेवटा, जा.ा भ.डारी यु) मेें काम आये। 1584 महिलाओं ने जौहर(जमहर) किया। इस प्रकार वैशाख सुदी छठ संवत् 1368 को जालोर किले से चैहानों का शासन समाप्त हुआ।
जालोर का प्राचीन नाम जाबालीपुर भी है। जालोर व्यापारिक केन्द्र भी रहा है। यहां पर प्रतिहार वंश का शासन भी रहा है। किसी समय यह {ौ= सरस्वती नदी का प्रवाह प{ा {ौ= भी रहा है। जैनाचार्य कुशलसूरी ने यहां तपस्या भी की है।
जालोर पूरे भारतवर्ष में अनूठा स्थान है। अनूठा इसलि, है कि देशभर में जब विधर्मी शासन कर रहे थे, उस समय विभिन्न राज परिवारों से डोले दिल्ली भेजे Ûये थे, जबकि जालोर में दिल्ली से अलाउदीन खिलजी की पु=ी शहजादी फिरोजा का डोला वीरमदेव के साथ विवाह के प्रस्ताव के सहित आया था। उस प्रस्ताव में यह भी था कि Ûुजरात का राज्य देंÛे। नौ करोड़ स्र्व.ा मुद्रा,ं देंÛे। इसके बावजुद भी इस विवाह प्रस्ताव को बड़े Ûंभीर शब्दों में अस्वीकार किया Ûया है। इसे कुल का अपमान माना Ûया है। ,क दोहा भी कहा Ûया है -
“मामा लाजे भाटीयां कुल लाजे चहुवा.ा,
जे पर.ाीजंू तुरकडी, तो अवळो ऊÛे भा.ा।”
जालोर में तथा इस जिले में जो है, उसका र्व.ान सहज तथा सरल नहीं है। जालोर से 45 किलोमीटर की दूरी पर आपेश्वर महादेव का मन्दिर है। आपेश्वर की प्रतिमा विश्व की अपने आप में अनूठी प्रतिमा है। जिसे देखकर डाॅक्टर विष्.ाु श्रीधर वाक.ाकर आश्चर्य चकित हो Ûये थे। उनका कहना था कि यह अर्व.ानीय है। इसी प्रकार से भीनमाल में स्थित वाराहश्याम का मन्दिर तथा वाराहश्याम की प्रतिमा जो Ûुप्तकालीन बतायी जाती है, उसकी विशालता, उसका शिल्प शायद ही कहीं देखने को मिले। भीनमाल के आसपास वाराह के अनेक मन्दिर है। वाराह मन्दिर में ही Ûजल{मी की प्रतिमा है। इसके अलावा वामन अवतार की तथा पार्वती के भीलनी स्वरूप की भी प्रतिमा है। चंडीनाथ मन्दिर भीनमाल मेें कुबेर की प्रतिमा है। जालोर के पास चितहर.ाी में नाÛ चट्टानें है। पा.ावा Ûांव का नाम पा.ावा “पा.डवा” के आधार पर ही बना है। वहां पर ,क पुराना पा.ड्वेश्वर मन्दिर भी है। सिया.ाा Ûांव में 1000 वर्ष पुराना खेतलाजी({ौ=पाल) का मन्दिर है। बिबलसर Ûांव में प्राचीन कदम्ब का वृ{ा है। जिसके नीचे भÛवान कृष्.ा ने विश्राम किया हुआ है। सुभद्रा-अर्जुन के विवाह की स्मृति में भाद्राजून बसा है। सोमनाथ के शिवलिंÛ को मुक्त कराने की स्मृति में सरा.ाा Ûांव बसा है। इसी तरह से उसी मार्Û में नीलकंठ महादेव है, तो ,ेसरा.ाा के पहाड़ में सुरेश्वर महादेव है। Ûोलाना Ûांव के खंडहरों में दशावतार का मन्दिर है।
अपने प्रारम्भिक काल से ही जालौर में संस्कृति कला और धर्म फूलता-फलता रहा हैं हिन्दू शासन काल में यह साहित्य का भी ,क महत्वर्पू.ा केन्द्र बन चुका था। शैव ओर जैन, दोनों धर्मों की यहां र्पू.ा प्रतिष्ठा थी। उनके मन्दिर भी यहां बहुतायत में निर्मा.ा किये Ûये थे जो अधिकांशतः मुस्लिम आक्रम.ाों में विनष्ट हो चुके हैं। साहित्य और शिलालेख के विवर.ाों के अनुसार सिन्धु राजेश्वर मन्दिर का अस्तित्व बारहवीं शताब्दी के अन्तिम समय तक रहा। सन् 1117 ई- के शिलालेख से हमें यह जानकारी प्राप्त होती है, कि परमार शासक वीसल की पत्नी मल्लार देवी ने इस मन्दिर पर स्र्व.ा कलश अर्पित किया था। सम्राट समरसिंह देव(सन् 1182-1199 ई-) की बहन रूदलदेवी ने यहां दो भव्य शिव मन्दिर निर्मित करवाये थे। उसमें से ,क ‘{िाम्बरायेश्वर मन्दिर‘ का अस्तित्व तो सन् 1263 ई- तक था, जिसका मुख्य पुजारी रावल ल{मीधर था।
जैन मन्दिरों में प्रमुख आदिनाथ, महावीर, पाश्र्वनाथ और शान्तिनाथ के मन्दिर थे। इसमें संभवतः आदिनाथ का मन्दिर प्राचीनतम् था। इसका अस्तित्व आठवीं शताब्दी तक ज्ञात है, इसी मन्दिर के उपासरे में उद्योतनसूरि ने (सन् 778 ई-) अपनी प्रसि) रचना कुवलयमाला र्पू.ा की थी। समरसिंह के राजकाल में श्रीमाली बनियाॅं यशोवीर (सन् 1182 ई-) ने आदिनाथ मन्दिर का म.डल बनाया था।
दूसरा महत्वर्पू.ा मन्दिर पाश्र्वनाथ का था। यह चालुक्य सम्राट कुमार पाल के राजकाल (सन् 1164 ई-) में बना था। प्रसि) जैनाचार्य और कुमारपाल के Ûुरू हेमचन्द्र ने अपने हाथों से पाश्र्वनाथ विÛ्रह की प्रतिष्ठा की थी।
स्र्व.ाÛिरि दुर्Û स्थित इस मन्दिर का नाम कुमार विहार रखा Ûया था। इस मन्दिर का पुनःनिर्मा.ा महाराजा समरसिंह के आदेश से सन् 1185 ई- में भंडारी यशोवीर }ारा करवाया Ûया। सन् 1239 ई- के ,क शिलालेख से हमें सूचना मिलती है, कि नाÛौर के लाहेड़ने पाश्र्वनाथ के बÛल में आदिनाथ की ,क मूर्ति प्रतिष्ठित करवायी थी।
तीसरा महत्वर्पू.ा जिनालय महावीर का था, जिसे ‘चंदन विहार‘ के नाम से जाना जाता था, जो ना.ाकÛच्छ से सम्बन्धित था। तेरहवीं शताब्दी के महाकवि महेन्द्र सूरि ने अपनी ‘अष्ठोत्तरी तीर्थमाला‘ में इस मन्दिर का विस्तृत र्व.ान किया है। जैन अनुश्रुतियों में इसका निर्मा.ा म.डोर के प्रतिहार शासक नाहड़राव ने करवाया था। सन् 1263 ई- के ,क शिलालेख के अनुसार भट्टारक रावल ल{मीधर ने इस मन्दिर पर सौ द्रम दान में दिये थे। सन् 1224 ई- में जब जिनेश्वर सूरि जालौर पधारे थे तब उन्होंने यहां महोत्सव आयोजित किया था, तद्न्तर सन् 1253 ई- में ,क बार फिर वे जालौर पधारे थे, तब उन्होंने सम्राट उदयसिंह तथा उनके मं=िम.डल के सहयोÛियों की उपस्थिति में तीर्थंकर की मूर्ति प्रतिष्ठित की थी।
इसके अतिरिक्त तेरहवीं शताब्दी में शान्तिनाथ तथा अष्ठपाद के जैन मन्दिर भी विद्यमान थे। सम्राट चाचींÛ देव के राज्यकाल (सन् 1259 ई-) में पादसू और मुलिÛ ने शान्तिनाथ मन्दिर पर दो स्र्व.ा कलश अर्पित किये थे। लू.ावसही(आबू) के सन् 1259 के शिलालेख के अनुसार देवचन्द्र ने अष्ठापद मन्दिर के सम्मुख दो विस्तृत चैकियां स्थापित की थी। जिसका अस्तित्व सन् 1594 ई- तक ज्ञात होता है।
उपर्युक्त उ)र.ा से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल से ही जालौर जैनधर्म के प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका था। सि)सेनसूरि अपनी ‘तीर्थमाला‘ में इसका पु.य स्मर.ा करते हैं। विधिचैत्य आन्दोलन को जालौर से ही शक्ति प्राप्त हुई थी। सन् 1168 ई- में प्रसि) खरतरÛच्छ आचार्य जिनचन्द्र यहां पुनः पधारे थे। आचार्य जिनपति सूरि की मृत्यु के बाद सन् 1221 ई- में श्री जिनेश्वर सूरि को यहीं ‘आचार्य‘ पद से अलंकृत किया Ûया था। इन जैन आचार्यों }ारा आयोजित उत्सवों में आस-पड़ोस की श्र)ालु जनता पूरी निष्ठा से भाÛ लेती थी।
यहीं उद्योतन सूरि ने वीरभद्र और हरिभद्र के निर्देशन में ‘कुवलयमाला‘ की रचना की थी। सन् 953 ई- में हरिभद्र सूरि के ‘अष्टकसंÛ्रह‘ पर जिनेश्वर सूरि ने टीका लिखी थी। जिनेश्वर सूरि के भाई बु)िसाÛर ने यहीं अपना Û्रंथ ‘पंचÛ्रंथी व्याकर.ा‘ की रचना की थी। प्रसि) वि}ान अससिÛा ने यहीं सन् 1200ई- में ‘जीवदया रास‘ और ‘चंदनबालारास‘ की रचना की थी। जालौर में ही लिखी।
सम्राट उदयसिंह का मं=ी यशोवीर ,क उद्भट वि}ान तथा प्रसि) कवि हुआ, जिसकी तुलना सोमेश्वर सूरि ने ‘कीर्ति कौमुदी‘ में अभिनन्द, मा?ा और कालीदास से की है। चैदहवीं शताब्दी में जिनभद्र सूरि ने यहां ,क विशाल ‘शास्=ा-भंडार‘ की स्थापना की थी। मध्यकाल में जितने भी जैन वि}ान हु, हैं, उन लोÛों ने इस शास्=ाभंडार से सहायता ली थी। सन् 1510 ई- में यहीं धर्मसमुद्र Û.िा ने ‘सुमि=ा कुमार रास‘ की रचना की थी। सन् 1582 ई- में सारंÛ ने ‘कवि विल्ह.ा पंचाशिका चैपाई‘ सन् 1594 ई- में ‘भोज प्रबन्ध चैपाई‘ और सन् 1618 ई- में ‘भावषट=िविंशिका‘ की रचना यहीं की थी। सन् 1612 ई- में श्यामसुन्दर ने ‘वृत्तिरत्नाकर-वृत्ति‘ सन् 1678 ई- में धर्मवर्धन ‘परिहंबंतिसि‘ और ‘अ{ारबतीसी‘ की रचना यहीं की थी। अठारहवीं शताब्दी में कुमार चन्द ने ‘रोहि.ाी चैपाई‘ और तिलक चन्द्र ने अपनी रम्य रचना ‘देसि-परदेसी-चैपाई‘ यहीं पर लिखी थी।
तेरहवीं शताब्दी में जालौर का वैभव अपने चरम बिन्दु पर पहुंचा हुआ था। उसी काल में महेन्द्र प्रभू सूरि }ारा रचित ‘अष्ठतोत्तरि तीर्थमाला‘ के अनुसार वहां 99 लाख की सम्पत्ति वाले सेठों को भी रहने का स्थान प्राप्त नहीं होता था। यद्यपि इस कथन में अतिशयोक्ति है, परन्तु यह सत्य है, कि उस काल में इसका वैभव बहुत बढा चढ़ा था। जिनहर्ष Û.िा कृत वस्तुपाल चरि=ा (प्रस्ताव 2) में जालौर को मरूस्थली के भाल स्थल पर सुशोभित तिलक की उपमा दी Ûई है -
इति मरूस्थली भालस्थली तिलक सन्निभै।
जावालिनÛरे स्र्व.ाÛिरि श्रृंÛार कारि.ाी।।
‘कान्हड़ दे प्रबन्ध‘ में भी पद्मनाथ ने जालौर का विस्तृत और रोचक र्व.ान किया है।
वि-सं- 1512 में रचित ‘कान्हड़ दे प्रबन्ध‘ का महाकवि पद्मनाभ भी वीरमदेव के जन्म की सूचना नहीं देता है। अपना महान Û्रन्थ आरंभ करते हु, पद्मनाभ वीरमदेव का परिचय देते हु, सिर्फ इतना ही कहते हैं, कि -
कुंअर वीरम दे बली, जा.ो जÛि जयवंत।
,ेतिहासिक दृष्टि से महत्वर्पू.ा बांकीदास की ख्यात में वीरमदेव को कान्हड़ देव का बेटा कहकर पुकारा Ûया है।
‘कान्हड़ दे प्रबन्ध‘ के अनुसार, कान्हड़ दे, चार रानियों के पति थे-उमा दे, कमला देवी, जैतल दे और भावल देवी।
माॅं कमला देवी ‘भटिया.ाी‘ ?
अÛर हम, ‘वीरम दे सोनीÛरा की बात‘ के कुछ अंश का ,ेतिहासिक उपयोÛ करना चाहें, तो उमा दे उसकी माता नहीं हो सकती, क्योंकि वार्ता के अनुसार पहली रानी (अÛर पद्मनाभ की सूची वरिष्ठता क्रम से जारी की Ûई हो) के पेट से सिर्फ ,क मा= पु=ी को जन्म दिया था, जिसका नाम, वार्ता के अनुसार वीर मती था।
वीरमदेव दूसरी रानी से पैदा हुये थे, जिसका नाम सम्भवत कमलादेवी था, जो निम्न प्रसि) दोहे -
‘मामा लाजे भाटियां, कुळ लाजे चहुवां.ा।‘
के अनुसार भाटी राजवंश की थी।
उपर्युक्त दोहे का कथन न सिर्फ, उनकी माता के वंश का परिचय देता है, बल्कि ‘वार्ता‘ के अनैतिहासिक जन्म की कथा को भी निस्सार कर देता है।
शिलालेख भले ही इतिहास के मेरूद.ड हैं, पर उसकी मांस मज्जा तो अनुश्रुतियाँ और लोकोक्त्तियाँ ही होती है।
कान्हड़ देव ने मुसलमान सैनिकों }ारा अपवि= किये Ûये, उन शिव लिंÛों को ÛंÛा जल से प्र{ाालन कर पवि= करवाया और उसमें से ,क ख.ड प्रभास पट्टन के उसी मन्दिर में, दूसरा ख.ड बाÛड़ तीसरा आबू, चैथा जालौर और पांचवां ख.ड अपने उपवन में मन्दिर बनवा कर उसमें प्रतिष्ठित करवाया। समस्त हिन्दुओं की दृष्टि में शिवलिंÛ की मुक्ति का यह कार्य कान्हड़देव की महान उपलब्धि थी।
काया अमर न कोय, थिर माया थोड़ी रहे।
दुनि में बातां दोय, नामां कामां, नोपला।।
कि वत्था धन जोड़ियां, नह चलसी सत्थांह।
मरदां अत्थां मा.िायां, जुÛ रहसी कत्थांह।।
उस दिन अमावस भी थी, इसलि, धार्मिक आस्था के अतिरिक्त लड़े Ûये यु) की थकान मिटाने तथा शरीर पर खून के दाÛ मिटाने के लि, बहुसंख्यक राजपूत अंÛ, जिरहजी.ा और कपड़े उतारकर सरोवर में स्नान करने लÛे। उनमें से ही कोई तुर्की सेना के छीने हु, निशानों को उल्लासपूर्वक बजाने लÛा। उसको अपने मूर्खतार्पू.ा कृत्य से उपजे Ûम्भीर परि.ाामों का अंदाज नहीं था। हुआ यह कि मलिक नायब जो शिकार से अपने खेमे की ओर लौट रहा था, उसने सोचा कि शायद ये निशान उसके बुलाये जाने के लि, ही लÛातार बजा, जा रहे हैं और वह अपने सैनिकों के साथ वहाँ जा पहुंचा, जहाँ नÛाड़े बजा, जा रहे थे। वह बड़ी तेजी से अपने खेमे को लौटा। उस समय उसके साथ 6 हजार ?ाुड़सवार और 30 हाथी थे। उसने वहाॅं मुस्लिम खेमों को ध्वस्त ,वं असंख्य मुसलमानों को मरा हुआ पाया। ?ाोडे़-हाथी, अस्=-शस्=, रसद, कपड़े, बहुमूल्य वस्तु,ं सब नदारद। उसे समझते देर न लÛी कि यहां क्या हुआ है? निकट ही वह देखता है कि ,ेसा खूनी कारनामा अंजाम देने वाले लोÛ तालाब में खुशियां मनाते हु, नहा रहे हैं। फिर क्या था? मलिक की सेना ने तालाब को चारों ओर से ?ोर कर अचानक अप्रत्याशित आक्रम.ा कर दिया। देखते ही देखते निहत्थे राजपूत तड़प-तड़प कर पानी में डूबने लÛे। कुछ राजपूत पानी से बाहर निकलने के प्रयस में, कुछ पानी से बाहर निकल कर अपने ?ाोड़ों पर चढने के प्रयासे में मारे जा रहे थे। हजारों बा.ाों से बिंधे लाखन सेभट, साल्ह शोभित और अजयसी माल्ह.ा अपने-अपने ?ाोड़ों पर चढ़ने में सफल हो Û,।
नंÛे बदन निःशस्= वीर मृत्यु का आमं=.ा स्वीकार करते हु, तुर्कों पर टूट पड़ना चाहते थे-------- लेकिन जैसे पत्थर तोड़ने वाले हाथ फूलों को मसल देते हैं, वैसे ही प्रतिरोध से भरे हु, तुर्कों ने आनन-फानन में उन्हें मार Ûिराया।
जीवन की यह नाटिका कितनी विचि= है। {ा.ा भर पहले जहाँ उल्लास मनाया जा रहा था, पट परिवर्तन होते वहाँ शमशान का भयावह दृश्य मंच पर उपस्थित है लाल पानी से भरे सरोवर के चारों तरफ चार हजार राजपूतों के {ात-वि{ात पार्थिव शरीर बिखरे पड़े हैं। वहां न कोई Ûाने वाला है, न रोने वाला।
अपने अश्व से मलिक नायब उतर पड़ता है। वह लाखन साल्ह अजयसी के मृत शरीर के पास पहुंच कर अपने अंÛूठे से उनके Ûरम रक्त का अपने माथे पर तिलक लÛाता है -
“धन्य है तुम्हारी माँ। तुम जैसे वीर न तो हिन्दू सेना में है, न तुर्क सेना में। तुम लोÛों को सलाम।”
यह ,क मुसलमान का हिन्दू के प्रति सम्मान नहीं, ,क वीर की ,क वीर के प्रति सच्ची श्र)ांजलि है।
“कनचयाल(कनकाचल, सुर्व.ा Ûिरि अथवा जालौर) सारे विश्व में मशहूर हैं प्राचीन काल में यहाँ कभी जाबालि ऋषि का आश्रम हुआ करता था, इसलि, इसका नाम जाबालिपुर प्रसि) हुआ। यह सत्य है, कि हिन्दुस्तान में बहुत से मजबूत दुर्Û है, जैसे-आसेर, ग्वालियर, चि=कुट चम्पानेर, भाम्भेर, मांडवÛढ़, सालेर, मूलेर-मÛर कोई भी दुर्Û जालौर दुर्Û की सुदृढता और दुरूहता में उसका मुकाबला नहीं कर सकता।
दुर्Û की तलहटी में बसे हु, नÛर के निवासियों के बारे में क्या कहा जाय, यहाँं के ब्राह्म.ा, जो वेद, पुरा.ा, शास्=ों के अध्ययन के प्रति समर्पित हैं। वे अध्ययन के अतिरिक्त शास्=ार्थ करने में भी बहुत प्रवी.ा हैं। जालौर में 36 विभाÛों के {ा=िय निवास करते हैं, जो अपने शौर्य, साहस और वीरता के लि, प्रख्यात हैं। चैहान राजा कान्हड़दे के मन में स्=ियों, ब्राह्म.ाों और Ûायों के प्रति असीम श्र)ा है। 36 प्रकार के आयुध चलाने के निष्.ाात राजा कान्हड़ दे कभी तुच्छ कार्य करने के बारे में सोचता भी नहीं है।”
नीच, पतित वीका दहिया ने अपना काम कर दिया था। उधर कमालुदीन Ûुर्Û बड़ी तीव्रता से तुर्क सेना को दुर्Û में दाखिल करवा रहा था और इधर अपनी दुष्टता र्पू.ा करके वीका दहिया प्रफुल्लित मन से नाना प्रकार की सुखदायी कल्पना,ं संजोये हु,, यह शुभ संवाद अपनी पत्नी को सुनाने के लि, ?ार पहुंचने की जल्दी में था।
?ार पहुंचते ही उसने ,क सांस में वह सारा का.ड कह सुनाया। वीका सोचता था कि यह समाचार सुनकर उसकी पत्नी अत्यन्त प्रसन्न होÛी और फिर पति की उन्नति से किसकी पत्नी प्रसन्न नहीं होती है। लेकिन यह किसी व्यक्ति का उत्कर्ष नहीं था, आत्महत्या थी। पाप कर्म }ारा अर्जित यह वैभव किस काम का, जिस पर लोÛ थूकें, Ûालियां दें, श्राप दें। वह स्र्व.ा महल क्या होÛा, जो पास की बारूद के ढेर पर निर्मित किया Ûया हो। हीरां ,क {ा=िय ओज से पैदा हुई स्फुलिंÛ थी, जो पाप की हवा पाते ही प्रच.ड अग्नि बन Ûई, जो वीका के आसमान में तैरते पापी महल को जलाने के लि, लपलपा उठी।
{ा=ा.िायां भले ही अभावों में पलती रहीं हों, परन्तु उनका स्वप्न पुरूष ,क आदर्श {ा=िय हो, यहीं कामना और अभिलाषा सदैव उनके जीवन का मापद.ड रहा है। हीरा अपने सामने खड़े उस पतित पति को देख रही है जो कामी है, नीच है, देशद्रोही है, नरकÛामी है। वह नारी Ûुस्से से फट पड़ती है-
“अरे च.डाल! तूने यह क्या किया? अरे दुष्ट! ,ेसा करते समय तूने सोचा नहीं कि जो राजा ,क पिता की भांति हमारा पालन-पोष.ा कर रहा है, जिसने हमारी सुख-सुविधाओं का समुचित प्रबन्ध कर रखा है, उस राजा के प्रति इतना बडा विश्वास?ाात। अरे निर्लज्ज! तूने अपने लोभ के लि, इतना बड़ा दुष्कर्म कर डाला, जबकि सारे नाÛरिक इस दुर्Û की र{ाा में अपना खून-पसीना बहाते हु, रात-दिन कहते-कहते हीरां देवी का {ा=ियत्त्व पूरे उफान पर आ Ûया, आवेश से उसकी मुट्ठियां तन उठी। शरीर का सारा रक्त आंखों में समा Ûया। पापी हतप्रभ, अवाक हो नारी के च.डी रूप को देख रहा है। वह च.डी झपट कर =ंबालू (तांबे के खोल से निर्मित बड़ा ढोल) उठाकर पूरे वेÛ से उस राजद्रोही रा{ास के सिर पर प्रहार कर देती है। इस प्रकार से वीका की खोपड़ी फट पड़ती है। पाप का ?ाड़ा फूटते ही सारा रक्त फर्श पर फैल जाता है और उसका निर्जीव शरीर वहीं ढेर हो जाता है।
यह नारी, अपने पति का नहीं, देशद्रोही का खून करके बदहवास हो राजमहल की ओर दौड़ पड़ती है। Ûिरती पड़ती वह राजमहल में ?ाुसकर सीधे राजा कान्हड़दे के पास पहुंचती है। हांफते हु, वह कहती जाती है, “महाराजा जी! मुसलमानी सेना दुर्Û में प्रवेश कर रही है।”
इसी बीच दुर्Û में ?ाुसते हु, तुर्क सेना का कोलाहल और तुरही की आवाज राजा के कानों में भी पड़ने लÛी थी।
अपने प्रसि) वीरों को खोकर कान्हड़ दे ने अन्तिम र्नि.ाय लिया। इन्होनें अपने राजपुरोहित सोमचन्द्र व्यास को बुलवाया। चिन्तातुर राजा व्यास जी से बोले - “महाराज! आप देख रहे हैं कि मेरा भविष्य मेरे सामने नंÛा होकर नांच रहा है। मुझे तो अश्वशाला में बंधे चैबीस सौ अश्वों की चिन्ता हो रही है, मैं चाहता हुँ साह.ाी को आदेश दूं कि वे सारे अश्वों को मृत्यु के ?ााट उतार दे।”
“नहीं, नहीं, दानी र्क.ा की तरह, अपनी जीवन की अन्तिम ?ाड़ी में इन अश्वों का दान कर दो। मैं अपना हाथ फैला कर तुमसे द{िा.ाा की मांÛ कर रहा हुँ। व्यासजी Ûम्भीरता से बोले”
राजा ने तुरन्त व्यासजी का पाद प्र{ाालन करके ?ाोड़ों का दान कर दिया। ?ाोड़ों का दान करते समय राजा के मन में यह विचार था कि इन ?ाोड़ों को प्राप्त कर व्यास जी दुर्Û छोड देंÛे, परन्तु यह क्या? उन्होने यह कहते हु,, “ब्राह्म.ा के धन का जो अपहर.ा करेÛा, उसका नाश हो, सारे ?ाोड़ों को बन्धन मुक्त कर दिया।”
व्यासजी को ,ेसा करते देख राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ, “क्या आप यह दुर्Û छोडकर नहीं जा रहे है? क्या आप भी मेरे साथ मरना चाहते है?”
राजा की यह बात सुनकर व्यास जी की आंखें डबडबा उठी।
“सौभाग्य है कि जजमान के हाथ से छूटा हुआ पुरोडास यज्ञ-कु.ड में ही Ûिरा। ओ राजा! तुम्हारे बाद वह कौन राजा है, जो मेरी पालकी को कंधा देÛा। मैं ब्राह्म.ा हूं। चा.डाल नहीं। जो राजा Ûाय, ब्राह्म.ाों की र{ाा के लि, अपना सर्वस्व होम कर रहा है, क्या उस राजा के साथ यह ब्राह्म.ा अपना प्रा.ा नहीं दे सकता। मैं भी बलि दूंÛा, तुम्हारे साथ इसी दुर्Û में।”
सारे रनिवास को {ा.ाभर में अग्नि ने लील लिया। स्वतं=ता के समर यज्ञ में सिर्फ रनिवास ने अपना बलिदान नहीं दिया था, ,ेसा अनुष्ठान जालौर नÛर में 1584 स्थानों पर आयोजित हुआ था। हम कल्पना कर सकते हैं उस दिन के आध्यात्मिक हाहाकार, विषाद क्रन्दन के बीच जाबालि ऋषि की इस साधना-स्थली का सीना टूक-टूक हो Ûया। जवाई नदी फफक-फफक कर रो पड़ी होÛी। स्वतं=ते, तुम्हें इस महनीय अनुष्ठान के अतिरिक्त और कौन सा बलिदान चाहि,?
,ेसा है अद्भुत अर्व.ानीय जालोर के वीरों की वीरता का इतिहास। जालोर वीरों, शूरों, सन्त-तपस्वियों की धरती है।
वीरमदेव चैकी
जालोर Ûढ़ ऊंचे पहाड़ के विशाल धरातल पर स्थित है जहां पर अनेक महल, मन्दिर, मस्जिद, झालरे आदि हैं। किले की दिवारें 25 फुट तक ऊंची और 15 फुट तक चैडी है। ?ाुमावदार परकोटे हैं परन्तु पर्वतों की सबसे ऊंची चोटी पर विशाल चबूतरे पर जहां ,क सौ व्यक्ति बैठकर मं=.ाा कर सकते हैं। ,क स्थान बनाया हुआ है। इस स्थान के बीच में ,क पलंÛ रखने का स्थान बनाया हुआ है। इस स्थान के बीच में ,क पलंÛ रखने का स्थान है जहां पलंÛ के चार पायों को अंदर रखने के लि, पत्थर-चूने से Ûढ्ढे बने हु, हैं जिससे तेज हवा होने पर भी खाट-पलंÛ उड़ न सकें। यहां अत्यन्त ही Ûुप्त मं=.ाा संभव हैं। इसी के साथ यहां से पूरे किले पर नजर रखी जा सकती है। आस पास का मनोहर दृश्य यहां से दृष्टि Ûोचर होता है।
स्र्व.ाÛिरि ,वं जैन समाज
स्र्व.ाÛिरि पर्वत पर स्थित प्राचीन जैन मन्दिरों की परम्परा ने इसे जैन तीर्थों में महत्वर्पू.ा स्थान दिया है। इसे राजस्थान के श=ुंजय तीर्थ की महिमा से मंडित किया Ûया है। आर्चाय धर्म?ाोष सूरि विरचित ‘मंÛल स्तो=‘ के आठवें श्लोक में कनकाचल नाम से इसे पवि= जैन तीर्थों में समाविष्ट किया है -
ख्यातोऽष्टापद-पर्वतो Ûजपदः सम्मेत-शैलाभिधः,
श्रीमान् रैवतकः प्रसि)-महिमा श=ुन्जयो मंडपः।
वैभारः कनकाचलोऽर्बुद-Ûिरिः श्री-चि=कूटादयः,
त= श्रीऋषभादयो जिनवराः कुर्वन्तु वो मंÛलम्।।
अर्थ: प्रसि) अष्टापद पर्वत, Ûजपद, सम्मेतशिखर, रैवताचल, Ûिरनार, महिमा-मंडित श=ुंजय, मांडवÛढ़, वैभारÛिरि, कनकाचल(कंचनÛिरि-स्र्व.ाÛिरि) अर्बुदÛिरि ,वं चि=कूट(चित्तौड़) आदि तीर्थों के स्वामी श्री आदि तीर्थकर ऋषभदेव तुम्हारा कल्या.ा करें।
इस परिम.डल के राजवंशों प्रतिहार, परमार चैहान ,वं राष्ट्रकूटों ने जैन धर्म का पोष.ा ,वं संर{ा.ा किया। इससे पूर्व हू.ा तोरमा.ड का भी इस प्रदेश पर शासन था। उसकी प्रशंसा उद्योतन सूरि ने अपनी प्रसि) रचना(778 ई-) कुवलयमाला में की है। तोरमा.ा जैन धर्म के प्रति आस्थावान था। उस युÛ में शक ,वं हू.ा प्रभृति विदेशी राजवंशों को जैन धर्म में मिलाने का कार्य आचार्य हरिभद्रसूरि ने किया। उन्होनें भीनमाल में कई विदेशियों को जैन बनाया। “ब्रह्मस्फुट सि)ांत” के रचयिता जिष्.ाु का पु= ब्रह्मÛुप्त भीनमाल का निवासी था ,वं वैश्य था। उसके ज्योतिष ज्ञान ,वं वि}ता का डंका सारे भारतवर्ष में बजता था। हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि हम लोÛ अपने लोÛों के महान कार्यो को भूल जाते हैं ,व विदेशियों के Ûु.ाÛान करने से नहीं अ?ााते। कुछ वर्षों पहले सूर्य सि)ान्त के आधुनिक प्रस्तोता कोपरनिकस की 400 वीं जयंती हमारे देश में मनाई Ûई पर सूर्य सि)ान्त के सातवीं शताब्दी के प्र.ोता ब्रह्मÛुप्त का सूर्य सि)ान्त और उसकी महत्ता हम भूल Ûये।
इस युÛ के जैन साहित्य “कुवलयमाला”(778 ई-) से ही ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूटों से पराजित होकर वत्सराज ने अपनी राजधानी भीनमाल से बदल कर जालोर स्थापित की थी। इन्हीं प्रतिहारों ने भीनमाल के दुर्Û को अर{िात जानकारी स्र्व.ाÛिरि का यह वर्तमान दुर्Û स्थापित किया था। कथा साहित्य का चरम निदर्श ‘कुवलयमाला‘ जालोर में ही लिखी Ûई थी। इसमें भारतवर्ष की वर्तमान भाषाओं के पूर्वज शब्दस्वरूप अंÛडाई लेते दिखाई देते हैं। तत्कालीन जालोर परिम.डल का या यूं कहिये सम्र्पू.ा मरूम.डल का वानस्पतिक, सांस्कृतिक ,वं सामाजिक परिवेश ‘कुवलयमाला‘ में जीवंत दिखाई देता हैं। भीनमाल से Ûुजरात Ûये श्रीनन्न के वंशज विमलशाह ने ही देलवाड़ा के जÛत्प्रसि) विमलवसहि मन्दिर को बनवाया था -
श्री श्रीमाल कुलोत्थ निर्मलतर, प्राग्वाटवंशाम्भरे,
भ्राजत् शीतकरोपमो Ûु.ानिधिः श्री निन्नकाख्यो Ûृही।
आसीद् ध्वस्तसमस्त पापनिचयो, वित्तो वरिष्ठाशयः,
धन्यो धर्मनिब) शु)।। }िधिष.ाः स्वाम्नाय लोकाÛ्र.ाी।।
आचार्य जिनसेन सूरि ने 780 ई- में अपनी प्रसि) रचना हरिवंशपुरा.ा का प्र.ायन इसी {ो= में किया। वत्सराज का र्व.ान ल?ाुस्त्तव नामक Û्रन्थ में भी आता हैं। जिस पर सोमशेखर सूरी ने टीका की हैं।
पहली शताब्दी में भीनमाल में हु, पादलिप्तसूरि ने पालिताना तीर्थ की महिमा हेतु ‘श=ुंजय कल्प‘ की रचना की। जालोर में परमार राजा भोज के शासन के समय में प्रभाचन्द्र नामक जैनाचार्य ने “प्रमेयकमलार्त.ड” नामक दर्शन Û्रंथ लिखा। वीर नामक जैन वि}ान ने ‘जम्बुस्वामीचरित‘ तथा नेमिचंद्र ने “द्रव्यसंÛ्रहटीका” जालोर में लिखी। सं- 1254 के आसपास सिरोही के कासहृदÛच्छ के साथ ही जालोर Ûच्छ की स्थापना जालोर से हुई। इस Ûच्छ के बालचन्द्र, Ûु.ाभद्र, सर्वानन्द, धर्म?ाोष ,वं देवसूरि वि}ान साधु हुये। देवसूरि ने प्राकृत में पद्मप्रभ चरि= रचा। इसी Ûच्छ के जिनपति सूरि के शिष्य र्पू.ाभद्रसूरि ने पंचाख्यानक(पंचतं=) का संशोधन किया जिस पर इटली के वि}ान र्हअन मुग्य हुये थे।
भीनमाल का सं- 1333 आश्विन सुदि 14 सोमवार के लेख में महाराजा चाचिÛदेव चैहान के राज्य में भीनमाल के राज्याधिकारी सुभट ,वं कर्मचारी कर्मसिंह ने अपने कल्या.ा के लि, आश्विन मास की या=ा महोत्सव पर महावीर स्वामी को पंच प्रकारी पूजा के लि, काफी द्रव्य का दान किया था।
जालोर तथा राजेन्द्रसूरीश्वरजी
वि-सं- 1933(1877 ई-) में श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का वर्षवास स्र्व.ाÛिरि तीर्थ के इतिहास में ,क सुनहरा वृत्तान्त है। दुर्Ûस्थित जिन मन्दिरों का शस्=ाÛारों की भांति उपयोÛ देखकर आचार्यश्री ने उनके उ)ार का संकल्प लिया। निरंतर आठ माह के सत्याÛ्रह सं?ार्ष के पश्चात् उन्हें सफलता मिली ,वं तभी से स्र्व.ाÛिरि के जैन मन्दिरों की व्यवस्था =िस्तुतिक जैन समाज के पास है।
आचार्यश्री का जन्म 3 दिसम्बर 1827 ई- को भरतपुर में श्रेष्ठी ऋषभदास पारख के ?ार माता केसरबाई की रत्नकु{िा से हुआ था। उनका नाम रत्नराज था। जन्म से ही मेधावी ,वं स्वाध्याय-चिंतन में विशेष अभिरूचि थी। अपने बड़े भाई मा.िाकचंद के साथ व्यापार के लि, बंÛाल ,वं लंका तक Ûये। माता-पिता के देहांत के पश्चात् आत्मरम.ाता में लीन वैराग्य की ओर प्रवृत्त हु,। 1845-47 में भरतपुर में प्रमोदसूरि जी का आÛमन होता रहा ,वं रत्नराज उनके संपर्क में रहे। उन्हीं की आज्ञा से रत्नराज ने उदयपुर में प्रमोदसूरिजी के बड़े Ûुरू भ्राता यति हेमविजयजी ये यति दी{ाा ली। नामकर.ा हुआ रत्नविजय। वैराग्य संवर्धक प्रमोदसूरिजी के साथ अकोला(बरार) ,वं इंदौर में चातुर्मास किये। अध्ययनशील ,वं मेधावी रत्नविजयजी ने 1849 में उज्जैन में चातुर्मास, विहार आदि यति साÛरचंद्रजी के साथ किये ,वं उनसे व्याकर.ा, न्याय, कोष, काव्यालंकार आदि का विशिष्ट अध्ययन किया। तत्पश्चात् आपने मंदसौर, उदयपुर, नाÛौर आदि में चातुर्मास किये। इनकी विल{ा.ा प्रतिभा देखकर इन्हें उदयपुर में बड़ी दी{ाा दी Ûई। 1852 ई- में इन्हें पंन्यास पद भी दिया Ûया था। 1853 से 1862 तक इनके सिरोही, पाली ,वं जालोर परिमंडल के बाहर चातुर्मास हु,। 1857 से 1862 तक धर.ोन्द्रसूरिजी को कालन्द्री में उनके यति मंडल के साथ विद्याभ्यास करवाया। धर.ोन्द्रसूरिजी कालन्द्री में Ûादीपति थे ,वं उनका उपासरा कालन्द्री के पोरवालवास के नेमिनाथ मन्दिर के सामने है उसमें म.िाभद्रजी की प्राचीन स्थापना है।
1863 में आपने रतलाम में वर्षावास किया ,वं पुनः प्रमोदसूरिजी के साथ आहोर पधार Ûये। प्रमोदसूरिजी आहोर के Ûादीपति थे ,वं धर.ोन्द्रसूरिजी के Ûुरू भाई थे। इनके Ûुरू भाई की ,क Ûादी ?ाा.ोराव में भी थी। आपका चातुर्मास 1864 में अजमेर में हुआ। आपकी योग्यता देखकर धर.ोन्द्रसूरिजी ने आपको दफ्तरी नियुक्त किया। 1865 में आहोर में चातुर्मास किया ,वं यतिसंस्था के शिथिलाचार के प्रति आपके मन में विराÛ पैदा हुआ। आपने धर.ोन्द्रसूरिजी के }ारा प्रदत्त दफ्तरी पद का परित्याÛ कर दिया ,वं मन में यति समाज के शिथिलाचार के विरू) क्रियो)ार का संकल्प लिया।
जालोर तथा मुह.ाोत
मुÛल काल में स्र्व.ाÛिरि दुर्Û के जैन मन्दिरों के उ)ारक जालोर के देश दीवान मुह.ाोत जयमलजी के उपकारों को भूला नहीं जा सकता है। जयमलजी जोधपुर के राव चन्द्रसेन के दीवान मुह.ाोत अचलाजी के पौ= थे। अचलाजी जीवन भर राव चन्द्रसेन के साथ रहे उन्होंने संवत् 1635 श्राव.ा वदि 11 तदनुसार 31 जनवरी 1582 ई- में सवराड़ के यु) में वीरÛति पायी। वे उस समय राव चन्द्रसेन की तरफ से सोजत के मुÛलकालीन हाकिम सैयद हासिम से लड़ते हु, स्वर्Ûवासी हु,। सवराड़ में इनकी छ=ी बनी हुई है। इनके पु= जेसाजी ने अपने पु= जयमलजी ,वं पौ=ों के साथ वि-सं- 1683 में जालोर किले पर धर्मनाथ के बिम्ब की स्थापना की थी। जयमलजी इन्हीं जेसाजी के पु= थे। इनका जन्म वि-सं- 1638 मा?ा सुदि 9 बुधवार तदनुसार दिनांक 31 जनवरी 1582 को हुआ था। इनकी माता का नाम जयवन्तदे था। इनकी प्रथम पत्नी वेदमुहता सरूपदे से तीन पु= नै.ासी, सुन्दरसी व आसकर.ा हु,। नै.ासी राजस्थान के प्रथम इतिहासकार माने जाते हैं। इनकी दूसरी पत्नी सिं?ावी सुहाÛदे से नृसिंहदास का जन्म हुआ।
जयमलजी नीतिनिपु.ा और कर्तव्यनिष्ठ राजनीतिज्ञ थे। इनकी धर्मनिष्ठा ,वं वीरता मारवाड़ में प्रसि) थी। इनके Ûु.ाों से प्रभावित होकर महाराजा सूरसिंहजी ने इन्हें Ûुजरात के वड़नÛर का हाकिम नियुक्त किया था। सूरसिंहजी का अधिकार जब फलौदी पर हो Ûया तो इन्हें फलौदी का हाकिम बनाया Ûया। संवत् 1677 के वैशाख मास में महाराजा Ûजसिंहजी जोधपुर के महाराजा बने। उन्होंने जयमलजी को जालोर का शासक नियुक्त किया। जब उन्हें शाहजादा खुर्रम ने सांचोर का परÛना प्रदान किया तो जयमलजी जालोर ,वं सांचोर दोनों परÛनों के दीवान नियुक्त हु,।
जयमलजी जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ओसवाल थे। उन्होंने अपनी जालोर की दीवानी के दौरान जालोर दुर्Û के भग्न मंदिरों को देखा तो उनकी पीड़ा को समझकर उनका र्जी.ाो)ार करने की प्रेर.ाा तपाÛच्छचार्य विजयदेवसूरि ने दी। आचार्य विजयदेवसूरिजी का सम्बन्ध बादशाह जंहाÛीर के दरबार से था। बादशाह जंहाÛीर ने उन्हें वृहत्तपा की उपाधि दी थी। जयमलजी ने जालोर दुर्Û के भग्न य{ावसति, अष्टापद ,वं कुमारविहार मंदिरों का र्जी.ाो)ार करवाया। भग्न जिन प्रतिमाओं को पधराया Ûया ,वं कुछ नये बिम्ब भरवाये Ûये। इनकी प्रतिष्ठा आचार्य विजयसूरि ने की। जयमलजी के इस महान् योÛदान को चिरस्थायी करने के लिये उनके परिवार ने जयमलजी की हाथी पर सवार प्रतिमा य{ावसति (महावीर मंदिरों) में स्थापित की, जैसा कि मंदिरों के शिलालेखों में र्व.िात है।
स्र्व.ाÛिरि दुर्Û के मन्दिरों की प्रतिष्ठा के पश्चात आपने संवत् 1683 में श=ुंजय पर ,क जैन मन्दिर बनवाया। इन्होंने अपने परिवार के साथ श=ुंजय आबू ,वं Ûिरनार तीर्थों की सं?ाया=ाओं का आयोजन किया। अपनी धर्मनिष्ठा के कार.ा जयमलजी ने मेड़ता, सिवाना ,वं फलौदी आदि नÛरों में जैन मन्दिरों के लि, महत्वर्पू.ा योÛ दिया ,वं उपाश्रय बनवाये। जयमलजी }ारा जोधपुर में चैमुखा केसरियाजी मन्दिर बनवाये जाने की हकीकत ओसवाल जाति के इतिहास में र्व.िात है किन्तु जोधपुर में केसरियाजी का मन्दिर तो है पर कोई चैमुखा मन्दिर आज दिखायी नहीं देता। नाडोल से प्राप्त सन् 1629 के राय विहार पद्मप्रभुजी के मन्दिर में पद्मप्रभु के बिम्ब पर उत्र्की.ा लेख मं जयमलजी का नाम बड़े सम्मान से लिया Ûया है।
राजाधिराज श्री Ûजसिंह प्रदत्त सकल राज्य व्यापाराधिकारे.ा म- जैसा सुत जयमल।
इस लेख से यह पता चलता हैं कि इन्हें महाराजा Ûजसिंह जी प्रथम ने सारे मारवाड़ में व्यापारिक आदान-प्रदान व व्यवस्था के अधिकार दिये थे।
सिरे मन्दिर
जालोर नÛर के द{िा.ा में दो पहाड़ स्थित हैं। पहला कनकÛिरि अथवा कनकाचल है जिसे स्र्व.ाÛिरि भी कहते हैं इस पहाड़ पर जालोर दुर्Û स्थित है। इस पहाड़ में पास ही द{िा.ा पश्चिम दिशा में स्थित दूसरा पहाड़ कन्याÛिरि, कनयाचल तथा कलशाचल कहलाता है। नÛर से लÛभÛ दो किलोमीटर दूरी पर स्थित यह पहाड़ दो हजार फीट की ऊंचाई का है जिस पर सिरे मन्दिर स्थित है। यह पर्वत अपनी विपुल प्राकृतिक सम्पदा झरने बालुका स्तूप तथा वनावली के कार.ा विविध दृश्य धार.ा करता है। यह स्थान योÛीराज जलंधरनाथ जी की सि) तपोभूमि है। जिनके नाम पर जालोर को जालंधर कहा जाता है।
जलंधरनाथजी ने यहां स्थित भंवर Ûुफा में तपस्या की और तात्कालीन परमार राजा राव को वटवृ{ा के नीचे तपोबल का चमत्कार दिखाया। राजा रतनसिंह ने वहां ,क शिव मन्दिर की स्थापना करवाई जिसे आज भी रत्नेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
मानसिंह राठौड़ ने आयस देवनाथ की कृपा से श्र)ालु होकर इस मन्दिर का पुननिर्मा.ा करवाया जो लÛभÛ 16-17 साल चला। मन्दिर परिसर में झालरा, चन्दर कूप, सूर्य कु.ड, अख.ड धू.ाा, हस्ति प्रतिमा, अमृत वाचिका, मानसिंह }ारा निर्मित तीन मंजिले भवन, जनाना व मर्दाना महल, भूल भुलैया आदि स्थित हैं।
भंवर Ûुफा के प्रांÛ.ा में बाई ओर ढाई फीट ऊंचे 15 फीट लम्बे व 24 फीट चैडे संÛमरमर के चबूतरे पर नाथ महात्माओं की समाधियां बनी हैं। ,क कोने पर सर्वप्रथम बनी हुई समाधि श्री सुआनाथजी की है। इस पर संÛमरमर का ,क तोता तथा ,क छोटा सा शिवलिंÛ बना है। इनके बाद भवानीनाथजी, भैरूनाथजी, हंसनाथजी, फूलनाथजी, सेवानाथजी, पू.ानाथजी, केसरनाथजी ,वम् भोलानाथजी की समाधियां है। कुछ समाधियों पर किसी का भी नाम अंकित नहीं है।
मन्दिर की सुर{ाा के लिये 105 फीट चैड़ा तथा 175 फीट लम्बा परकोटा बना हुआ है जिसकी ऊंचाई 10 फीट से 25 फीट तक है। परकोटे में पूर्व, उत्तर तथा पश्चिम दिशाओं में ,क-,क विशाल }ार बने हु, है। परकोटे की दीवार को पर्याप्त चैड़ा व सुदृढ़ बनाया Ûया है जो आपातकाल में मन्दिर को ,क ल?ाु किले में परिवर्तित करने में समर्थ थ। जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने अपने निर्वासन का काल जालोर दुर्Û तथा इसी मन्दिर में Ûुजारा था। आÛन्तुकों की सुविधा के लिये परिसर में खुले बरामदे, बन्द कमरे तथा रसोई?ार आदि की पर्याप्त व्यवस्था है।
सिरे मन्दिर के लिये जहां से चढ़ाई आरम्भ होती है उससे कुछ पहले रतन कूप के अवशेष मिलते हैं, कहा जाता है कि यह कुंआ राव रतनसिंह ने बनवाया था। चढ़ाई आरम्भ होने के स्थान पर मानसिंह }ारा स्थापित जालंधरनाथ के चर.ा युÛल स्थित है। यहां या=ियों के विश्राम हेतु ,क विश्रामालय, ,क कुआं, ,क टांका तथा प्याऊ भी बनी हुई है। इन सबको ,क परकोटे से ?ारे दिया Ûया है जिसके बाहर बाईं ओर श्री रामेश्वरजी तथा श्री Ûोपीनाथजी कुलिया.ाा तथा दाईं ओर बालकनाथ जी और बाईसा भूरनाथजी(केसरनाथजी की शिष्या) की समाधियां बनी थी। ऊपर तक जाने के लिये पक्की सीढ़िया बनी हुई है। कुछ चढाई के बाद भैरूजी, टेकरी वाले हनुमानजी तथा उससे आÛे लÛभÛ आधे मार्Û पर Û.ोशजी के स्थान आते है। यहां Û.ोशजी की दो प्रतिमां, स्थापित है। ,क प्रतिमा राजा मानसिंह }ारा स्थापित की Ûई थी किन्तु कुछ वर्ष पूर्व यह Û.ोश प्रतिमा Ûुम हो Ûई। अतः ,क नवीन प्रतिमा स्थापित कर दी Ûई। बाद में प्राचीन प्रतिमा Ûुम हो Ûई। अतः ,क प्राचीन प्रतिमा स्थापित कर दी Ûई। बाद में प्राचीन प्रतिमा पुनः प्राप्त होने पर भी स्थापित कर दी Ûई।
आÛे के मार्Û में ,क छोटी सी समाधि बनी हुई है जो किसी ब्राह्म.ा देवता की है। कहा जाता है कि यहां किसी ब्राह्म.ा को शेर ने मार दिया था, जिनकी स्मृति में यह समाधि बनाई Ûई। आज भी सिरे मन्छिर की चढ़ाई करते व लौटते समय ब्राह्म.ा समुदाय के लोÛ ‘पाय लाÛूं सा‘ तथा ‘पाछो जाऊं सा‘ (चर.ा स्पर्श करता हूॅ तथा पुनः लौटता हूॅ) कहते है।
शनिवार, 16 मई 2009
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
स्वात घाटी में तालिबान का शासन हो चुका है। अफगानिस्तान पहले से ही उसकी क्रुरता से लड़ रहा है। पाकिस्तान और अमेरिका का सांझा प्रयास तथा चीन की मौन सहमति तालिबान को कदमों को धीरे-धीरे भारत की तरफ बढ़ा रही है। भारत वर्ष में अभी जो हालात बने हुये है जिस ढंग की मानसिकता इस देष के नेताओं की अल्पसंख्यकवाद पर बनी हुई है। उसे देखते हुये तथा वोट बैंक की राजनीति को देखते हुए इस खतरे से मुकाबले के लिए हम तैयार नहीं है। जब बटाला हाऊस में मुठभेड होती है तब उसकी जांच की मांग की जाती है। इस देष में करोडों की संख्या में बंगलादेषी रह रहे है। जिनको तालिबान का अग्रदूत कहा जाये तो गलत नहीं होगा। पूरे पूर्वांचल पर इनकी नजर है। यह बात मुजिबुर रेहमान जैसा व्यक्ति भी कह चुका है। पूरे पूर्वांचल में बंगलादेषियों की संख्या इस कदर बढ चुकी है कि वहां का पहले से रहने वाला निवासी अपने आप में अल्पसंख्यक बन गया है। यह स्थिति कष्मीर घाटी की है। जहां के सारे पण्डित आज भी दर-दर की ठोकरे खा रहे है। मन्दिर तोडे जा रहे है और उस पर देष के शासनकर्ता मल्हार गा रहे है। केरल में खाडी देषों के पैसों से जो कुछ हो रहा है वह चिन्ता का विषय है। भारत का पूरा का पूरा समुद्री किनारे का इलाका सम्प्रदाय विषेष के लोगों के कब्जे में है। वहां उनकी अघोषित हुकुकत चलती है। पुलिस प्रषासन, नेता सभी अपनी-अपनी सुविधा के लिए वोट बैंक की राजनीति के चलते चुप रहते है। कन्याकुमारी से लेकर गुजरात के तटों तक कन्याकुमारी से लेकर बंगाल के तटों तक आप जहंा जायेंगे आपको एक पंथ विषेष के लोग मिलते जायेंगे। पूजा पद्धती राष्ट्र के प्रति भावना में बदलाव लाती है। यह अब विवाद का विषय नहीं रहा है जो लोग इस पर आपत्ति करते है। वे झुठ बोलते है। आजादी के बाद हर क्षैत्र में एक समुदाय विषेष की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। हिन्दू कम हुआ है। जहां हिन्दू कम हुआ है वह भाग भारत से अलग होने की मांग करने लगा है। कष्मीर घाटी इसका उदाहरण है। कांगे्रेस ने वहंा उमर अब्दुला की सरकार को समर्थन देकर 1953 से पहले की वह स्थिति ले आयी है जहां पर स्वतंत्र कष्मीर का राग अलापा जाता था। इसी बात पर एक देष दो निषान, एक देष दो विधान नहीं चलेगे-नहीं चलेगे। देष के एक प्रख्यात चिंतक षिक्षाषास्त्री तथा राजनेता डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का बलिदान हुआ था।
इन सब घटनाओं पर कुछ विचार करे।
इन सब घटनाओं पर कुछ विचार करे।
रविवार, 12 अप्रैल 2009
अम्बेडकर, महात्मा गांधी, डाॅ. लोहिया तथा डाॅ. हेडगेवार
पिछली एक शताब्दी अर्थात् 1901 से लेकर अभी तक का भारतीय सामाजिक ताना-बाना, राजनीतिक ताना-बाना, मिडिया की चटपटी खबरे, राजनेताओं के चित्र या उनकी बाते उनके किस्से इन चार युग पुरूषों के चारों तरफ ही भ्रमण करते हुये नजर आते है। सामान्य रूप से आज का मिडिया तथा बहुत सारे लोग इनको परस्पर विरोधी मानते रहे है। ऐसा बहुत कुछ लिखा भी जाता रहा है। भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य पर विचार करे तो अम्बेडकर की विचारधारा की ठेकेदारी बहुजन समाज पार्टी ने, दलित सेना ने रिपब्लिकन पार्टी ने डीएमके ने तथा बामसेफ आदि ने उठा रखी है। यह लोग हर बात में डाॅक्टर भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले, साहुजी महाराज के नाम का योग करते है। मूल निवासी होने की बात कहते है। अम्बेडकर पर अपना एक मात्र अधिकार बताते है। मानों इनके पास कापी राईट तथा पैटेंट है।
इसी तरह से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, नेषनल कांग्रेस पार्टी (एनसीपी शरद पवार) प्रभृति राजनीतिक दल मोहनदास कर्मचंद गांधी को अपना पैटेंट बताते है। गांधी के नाम का सर्वाधिक प्रयोग यही लोग करते है। हर बात में गांधी की विरासत का आधार लेना इनकी फितरत है।
इसी तरह से मूलायमसिंह यादव, लालूप्रसाद यादव, नितीष कुमार, शरद यादव सभी लोग अपने आपको राममनोहर लोहिया से प्रेरित बतलाते है। उनकी विचारधारा को अपनी विचारधारा बताते हैै। अपने आपको लोहियावादी कहलाना पसंद करते है।
भारतीय जनता पार्टी या उसका पुराना रूप भारतीय जनसंघ की विचारधारा का स्त्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकलता है। जिसकी स्थापना 1925 में डाॅक्टर केषवराव बलीराम हेडगेवार द्वारा की गयी थी।
वर्तमान भारतीय राजनीति में यह सभी विचारधाराओं के ठेकेदार लगभग परस्पर एक दूसरे का विरोध करते हुये चलते हैै। एक दूसरे को गाली भी देते है। मारने काटने की धमकी भी देते है। रोलर के नीचे पिसवाने का भाषण भी देते है। अर्थात सत्ता प्राप्ति की गला काटू दौड में यह सब कुछ भी करने के लिए तैयार है। कोई अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहता है। कोई अपने आपको हिन्दुत्व का एक मात्र रक्षक कहता है।
यह चारों विचारक वामपंथी विचारधारा के समर्थक कभी नहीं रहे। लोहिया पर कुछ लोग कभी कभार वामपंथ समर्थक होने का आरोप लगाते रहे है परन्तु लोहिया का जीवन गरीब का समर्थक था। वह राम को पूज्य मानते थे। उन्होने राम की सजीव स्मृति चित्रकूट में रामायण मेला प्रारम्भ किया था। डाॅक्टर राममनोहर लोहिया की एक पुस्तक है भारत माता धरती माता, जिसे ओमकार शरद ने सम्पादित किया है। उसको पढ़ने से बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट होता है कि लोहिया वामपंथी नहीं थी।
इसी तरह से भीमराव अम्बेडकर वामपंथ के कितने समर्थक थे। इसका अंदाजा अम्बेडकर अणी माक्र्स को पढने से पता लग सकता है। इसके अलावा एक पुस्तक डाॅक्टर अम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा जो दंतोपंथ बा ठेंगडी द्वारा लिखी गयी है। उससे भी यही भाव निकलता है।
महात्मा गांधी तथा डाॅक्टर हेडगेवार घोषित रूप से वामपंथ विरोधी है। वर्तमान में शर्म निरपेक्षों तथा प्रगतिषिलों को यह चारों महापुरूष परस्पर विरोधी विचारधारा के प्रतीक लगते है। मेरी राय में यह सभी लोग एक ही दिषा में एक ही उद्देष्य के लिए काम करते रहे है। इनका एक मात्र उद्देष्य सबल भारत, संगठित भारत, सुविकसित भारत निर्माण करना था। महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया तथा डाॅक्टर हेडगेवार भगवान राम के विरोधी नहीं थे। अम्बेडकर के बारे में यह कहा जाता है कि वे राम के विरोधी थे। उन्होने एक पुस्तक भी लिखी है। उनको राम का व्यवहार सीता के प्रति अन्यायपूर्ण लगा था। उन्होने राम के व्यवहार की आलोचना अवष्य की है परन्तु राम की पूजनीयता पर उनको संदेह था। ऐसा मुझे कही नहीं लगा। इस विषय मंे दत्तोपंत ठंेगडी ने एक उदाहरण दिया है कि 20 सितम्बर 1951 को संविधान समिति में भाषण करते समय उन्होने यह कह दिया था कि राम ने सीता का जो त्याग किया था। वह त्याग अन्यायपूर्ण था। इस पर कुछ लोगों ने आपत्ति उठायी तो उनका कहना था उनका ऐसा भाव नहीं था। बाद में अपने कथन को उन्होने कार्यवाही से हटा भी दिया था। अम्बेडकर की विचार यात्रा में ऐसे कई प्रसंग आये हो उनके द्वारा संकलित रिडील्स कई बार बदले गये है।
मैंने जैसा पाया है यह चारों युग पुरूष सामाजिक समरसता के पक्षधर थे। वामपंथ के विरोधी थे। इनके सुधार का लक्ष्य बिन्दु हिन्दू समाज था। यह इस समाज में परिवर्तन चाहते थे। कारण यह इनका अपना समाज था। यह भाव इनके मन में था। यह इस बात के समर्थक थे कि जाति प्रथा ने समाज को तोडा है। इस पर विचार करने की आवष्यकता है। इसी कारण यह देष गुलाम हुआ है। पाकिस्तान के विषय में अथवा इस्लाम के विषय में डाॅक्टर हेडगेवार तथा डाॅक्टर अम्बेडकर की विचारधारा एक जैसी थी। डाॅक्टर अम्बेडकर ने अपने जीवन के उत्तर काल में बौद्ध मत स्वीकार किया था। उस अवसर पर उन्होने जो कहा था उसे लिखना आज आवष्यक मानता हूॅ।“I Will choose only the least harmful way for the country. And that is the greatest benefit I am conferring on the country by embracing Buddhism; for Buddhism is a part and parcel of Bharatiya Culture. I have taken care that my conversion will not harm the tradition of the culture and history of this land.”अम्बेडकर ने इस्लाम के विषय में जो लिखा वह शायद उनके वांगमय के भाग 15 में तथा पाकिस्तान और पार्टीषन नामक पुस्तक से पता लगता है। उसका सार jagritimanch.blogspot.com/2007/11/blog-post_8000.html पर लिखा हुआ है
हिन्दू मुस्लिम एकता एक असंभव कार्य है भारत से समस्त मुसलमानों को पाकिस्तान भेजना और वहा से हिन्दुओ को बुलाना ही एक हल है यदि यूनान तुर्की और बुल्गारिया जैसे कम साधनों वाले छोटे छोटे देश यह कर सकते हैं तो हमारे लिए कोई कठिनाई नहीं सांप्रदायिक शांति के लिए अदला बदली के इस महत्वपूर्ण कार्य को न अपनाना अत्यंत उपहासास्पद होगाए विभाजन के बाद भी भारत में सांप्रदायिक हिंसा बनी रहेगीए पाकिस्तान में रुके हुए अल्पसंख्यक हिन्दुओ की रक्षा कैसे होगी घ् मुसलमानों के लिए हिन्दू काफिर सम्मान के योग्य नहीं हैं मुसलमान की भ्रातु भावना केवल मुसलमानों के लिए है कुरान गैर मुसलमान को मित्र बनाने का विरोधी है इसलिए हिन्दू सिर्फ घृणा और शत्रुता के योग्य ही हैं मुसलमानों की निष्ठा भी केवल मुस्लिम रास्त्रो के प्रति होती है इसलाम सच्चे मुसलमान हेतु भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओ को अपना निकट सम्बन्धी मानने की आज्ञा नहीं देताए संभवतः यही कारण था की मौलाना मोहमद अली जैसे भारतीय मुसलमानों ने भी अपने शरीर को हिंदुस्तान की अपेक्षा येरुशेलम में दफनाना अधिक पसंद किया कांग्रेस में मुसलमानों की स्थितियो के सम्पर्दायिक चौकी की तरह है गुंडागर्दी मुस्लिम राजनीती का स्थापित तरीका हो गया है इस्लामी कानून समाज सुधर के विरोधी हैं वे धर्मनिरपेक्षता को नहीं मानते हैं मुस्लिम कानूनों के अनुसार भारत हिन्दुओ और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती वे भारत जैसे गैर मुस्लिम देश को इस्लामिक देश बनाने में जिहाद श्आतंकवादश् का संकोच नहीं करते
प्रमाण सार डॉ अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मयए खंड १५ ,इस विषय पर आप सभी के विचार मैं आमंत्रित करता हूॅ कि हम एक गंभीर चिंतन की दिषा मंे बढ सके। इसे पहला भाग माने।
इसी तरह से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, नेषनल कांग्रेस पार्टी (एनसीपी शरद पवार) प्रभृति राजनीतिक दल मोहनदास कर्मचंद गांधी को अपना पैटेंट बताते है। गांधी के नाम का सर्वाधिक प्रयोग यही लोग करते है। हर बात में गांधी की विरासत का आधार लेना इनकी फितरत है।
इसी तरह से मूलायमसिंह यादव, लालूप्रसाद यादव, नितीष कुमार, शरद यादव सभी लोग अपने आपको राममनोहर लोहिया से प्रेरित बतलाते है। उनकी विचारधारा को अपनी विचारधारा बताते हैै। अपने आपको लोहियावादी कहलाना पसंद करते है।
भारतीय जनता पार्टी या उसका पुराना रूप भारतीय जनसंघ की विचारधारा का स्त्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकलता है। जिसकी स्थापना 1925 में डाॅक्टर केषवराव बलीराम हेडगेवार द्वारा की गयी थी।
वर्तमान भारतीय राजनीति में यह सभी विचारधाराओं के ठेकेदार लगभग परस्पर एक दूसरे का विरोध करते हुये चलते हैै। एक दूसरे को गाली भी देते है। मारने काटने की धमकी भी देते है। रोलर के नीचे पिसवाने का भाषण भी देते है। अर्थात सत्ता प्राप्ति की गला काटू दौड में यह सब कुछ भी करने के लिए तैयार है। कोई अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहता है। कोई अपने आपको हिन्दुत्व का एक मात्र रक्षक कहता है।
यह चारों विचारक वामपंथी विचारधारा के समर्थक कभी नहीं रहे। लोहिया पर कुछ लोग कभी कभार वामपंथ समर्थक होने का आरोप लगाते रहे है परन्तु लोहिया का जीवन गरीब का समर्थक था। वह राम को पूज्य मानते थे। उन्होने राम की सजीव स्मृति चित्रकूट में रामायण मेला प्रारम्भ किया था। डाॅक्टर राममनोहर लोहिया की एक पुस्तक है भारत माता धरती माता, जिसे ओमकार शरद ने सम्पादित किया है। उसको पढ़ने से बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट होता है कि लोहिया वामपंथी नहीं थी।
इसी तरह से भीमराव अम्बेडकर वामपंथ के कितने समर्थक थे। इसका अंदाजा अम्बेडकर अणी माक्र्स को पढने से पता लग सकता है। इसके अलावा एक पुस्तक डाॅक्टर अम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा जो दंतोपंथ बा ठेंगडी द्वारा लिखी गयी है। उससे भी यही भाव निकलता है।
महात्मा गांधी तथा डाॅक्टर हेडगेवार घोषित रूप से वामपंथ विरोधी है। वर्तमान में शर्म निरपेक्षों तथा प्रगतिषिलों को यह चारों महापुरूष परस्पर विरोधी विचारधारा के प्रतीक लगते है। मेरी राय में यह सभी लोग एक ही दिषा में एक ही उद्देष्य के लिए काम करते रहे है। इनका एक मात्र उद्देष्य सबल भारत, संगठित भारत, सुविकसित भारत निर्माण करना था। महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया तथा डाॅक्टर हेडगेवार भगवान राम के विरोधी नहीं थे। अम्बेडकर के बारे में यह कहा जाता है कि वे राम के विरोधी थे। उन्होने एक पुस्तक भी लिखी है। उनको राम का व्यवहार सीता के प्रति अन्यायपूर्ण लगा था। उन्होने राम के व्यवहार की आलोचना अवष्य की है परन्तु राम की पूजनीयता पर उनको संदेह था। ऐसा मुझे कही नहीं लगा। इस विषय मंे दत्तोपंत ठंेगडी ने एक उदाहरण दिया है कि 20 सितम्बर 1951 को संविधान समिति में भाषण करते समय उन्होने यह कह दिया था कि राम ने सीता का जो त्याग किया था। वह त्याग अन्यायपूर्ण था। इस पर कुछ लोगों ने आपत्ति उठायी तो उनका कहना था उनका ऐसा भाव नहीं था। बाद में अपने कथन को उन्होने कार्यवाही से हटा भी दिया था। अम्बेडकर की विचार यात्रा में ऐसे कई प्रसंग आये हो उनके द्वारा संकलित रिडील्स कई बार बदले गये है।
मैंने जैसा पाया है यह चारों युग पुरूष सामाजिक समरसता के पक्षधर थे। वामपंथ के विरोधी थे। इनके सुधार का लक्ष्य बिन्दु हिन्दू समाज था। यह इस समाज में परिवर्तन चाहते थे। कारण यह इनका अपना समाज था। यह भाव इनके मन में था। यह इस बात के समर्थक थे कि जाति प्रथा ने समाज को तोडा है। इस पर विचार करने की आवष्यकता है। इसी कारण यह देष गुलाम हुआ है। पाकिस्तान के विषय में अथवा इस्लाम के विषय में डाॅक्टर हेडगेवार तथा डाॅक्टर अम्बेडकर की विचारधारा एक जैसी थी। डाॅक्टर अम्बेडकर ने अपने जीवन के उत्तर काल में बौद्ध मत स्वीकार किया था। उस अवसर पर उन्होने जो कहा था उसे लिखना आज आवष्यक मानता हूॅ।“I Will choose only the least harmful way for the country. And that is the greatest benefit I am conferring on the country by embracing Buddhism; for Buddhism is a part and parcel of Bharatiya Culture. I have taken care that my conversion will not harm the tradition of the culture and history of this land.”अम्बेडकर ने इस्लाम के विषय में जो लिखा वह शायद उनके वांगमय के भाग 15 में तथा पाकिस्तान और पार्टीषन नामक पुस्तक से पता लगता है। उसका सार jagritimanch.blogspot.com/2007/11/blog-post_8000.html पर लिखा हुआ है
हिन्दू मुस्लिम एकता एक असंभव कार्य है भारत से समस्त मुसलमानों को पाकिस्तान भेजना और वहा से हिन्दुओ को बुलाना ही एक हल है यदि यूनान तुर्की और बुल्गारिया जैसे कम साधनों वाले छोटे छोटे देश यह कर सकते हैं तो हमारे लिए कोई कठिनाई नहीं सांप्रदायिक शांति के लिए अदला बदली के इस महत्वपूर्ण कार्य को न अपनाना अत्यंत उपहासास्पद होगाए विभाजन के बाद भी भारत में सांप्रदायिक हिंसा बनी रहेगीए पाकिस्तान में रुके हुए अल्पसंख्यक हिन्दुओ की रक्षा कैसे होगी घ् मुसलमानों के लिए हिन्दू काफिर सम्मान के योग्य नहीं हैं मुसलमान की भ्रातु भावना केवल मुसलमानों के लिए है कुरान गैर मुसलमान को मित्र बनाने का विरोधी है इसलिए हिन्दू सिर्फ घृणा और शत्रुता के योग्य ही हैं मुसलमानों की निष्ठा भी केवल मुस्लिम रास्त्रो के प्रति होती है इसलाम सच्चे मुसलमान हेतु भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओ को अपना निकट सम्बन्धी मानने की आज्ञा नहीं देताए संभवतः यही कारण था की मौलाना मोहमद अली जैसे भारतीय मुसलमानों ने भी अपने शरीर को हिंदुस्तान की अपेक्षा येरुशेलम में दफनाना अधिक पसंद किया कांग्रेस में मुसलमानों की स्थितियो के सम्पर्दायिक चौकी की तरह है गुंडागर्दी मुस्लिम राजनीती का स्थापित तरीका हो गया है इस्लामी कानून समाज सुधर के विरोधी हैं वे धर्मनिरपेक्षता को नहीं मानते हैं मुस्लिम कानूनों के अनुसार भारत हिन्दुओ और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती वे भारत जैसे गैर मुस्लिम देश को इस्लामिक देश बनाने में जिहाद श्आतंकवादश् का संकोच नहीं करते
प्रमाण सार डॉ अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मयए खंड १५ ,इस विषय पर आप सभी के विचार मैं आमंत्रित करता हूॅ कि हम एक गंभीर चिंतन की दिषा मंे बढ सके। इसे पहला भाग माने।
झूठा राहुल गाँधी
LOOK AT THIS LIAR RAHUL GANDHI
April 1st, 2009 | | Posted in Great Hindu
See how this liar is trying to fool people that he is a common man. He is holding an empty plastic bucket on his head with a full Reebok Shoes while that underprivileged aam aadmi is walking bare foot with real load on her head.
This drug-addicted Zombie (remember, eyes don’t lie) was once arrested in Boston for possessing drugs. It was the then Prime Minister Atal Behari Vajpayee who released him using his good office in the US.
Now, this man says that his party is pro-poor. Remember, it is his Party which is responsible for the nation’s poverty. It was the Nehruvian Stalinist socialism which impoverished India.
Today, billions of dollars from India are stashed in Swiss Bank — thanks largely to the Congress misrule. The Congress is responsible for keeping India in poverty, pro-poor indeed.
Besides, the Congress is fully into Muslim appeasement. The spineless Prime Minister that is Manmohan Singh has declared funds for terrorist families. Besides, he is also on record stating that the first right on the resources of the nation belongs to Muslims.
Voters, beware of the Congress-Manmohan-Sonia nexus. They will Talibanise India with their pussyfooting. Elect a pro-Hindu Government at the Centre.
Postscript: The Indian Media is hardselling Rahul while condemning Varun. Both are as differen as chalk and cheese. Choose patriotic Varun over these Islamic bootlickers
कांग्रेस नेता राहुल केसा काम करते है इसे दिखाने के लिए इस पोस्ट को चुराने की कला काम मे ली गई है.
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
भस्मासुर बना आरक्षण
आरक्षण भस्मासुर बना गया है। इसकी रचना करने वाले आम्बेडकर आज जीवित होते तो इसके घोर विरोधी होते तथा इसको समाप्त करने के आन्दोलन का नेतृत्व करते। राजस्थान इसकी दाहकता से ज्वलित हो चुका है। प्रंचडता का अनुभव कर चुका है। आरक्षण का हवन कुण्ड कई लोगों की बलि ले चुका है। करोडांे रूपयों की राष्ट्रीय क्षति हो चुकी है। मण्डल, आर्थिक, पिछडा वर्ग, अल्प संख्यक, गुर्जर, जाट, ब्राह्मण सभी की अपनी-अपनी मांग है। राजनेताओं ने इसे वोट खरिदने का हथियार बन चुका है। यह एक ढंग से ए.टी.एम. है। अर्थात् कार्ड खेलों, पासवर्ड दबाओं, वोट निकालों। यह एस.टी.एम. 58 सालों में घातक बन चुका है। विस्फोट की तैयारी है।
अभी गुर्जर आन्दोलन के समय भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक से पूछा तो उन्होने कहा कि मजा आ रहा है। इससे हमारी नेतृत्व परिवर्तन की मांग पूरी हो जायेगी। किसी ने कहा कि हिन्दू मर गए। इस प्रकार हर समय आरक्षण किसी न किसी का बलिदान लेकर ही चला है।
आज आरक्षण पर समग्र रूप से व्यापक चिन्तन का समय आ चुका है। इसके स्वरूप पर राष्ट्रीय बहस का समय का चुका है। अभी गुर्जर आरक्षण आन्दोलन की आग में जब राजस्थान तप रहा था। उस समय सबसे अधिक आश्चर्य मुझे पूज्य संत रविशंकर महाराज के वक्तव्य पर हुआ कि वे भी यह कह बेठे कि गुर्जरों की मांग उचित है, परन्तु क्यों? वस्तुतः आरक्षण जिनको नहीं मिला, वे इसको हर हालत में प्राप्त करना चाहते है। जिनको मिल गया वे सब पिढीयों तक इसे अपने तक सिमित रखना चाहते है। आरक्षण पर उच्चतम न्यायालय का राइडर 50 प्रतिशत है। उच्चतम न्यायालय के राइडर को कई प्रान्तों ने तोड दिया, उसे संविधान संशोधन कर समर्थन दिया गया। वैसे सभी नेताओं का शगल बयानबाजी होता है। इससे कोई अछूता नहीं है।
आरक्षण देने का आधार सामाजिक भेदभाव, आर्थिक पिछडापन तथा इससे उत्पन्न होती विषमता, हीन भावना, कमजोरी था। इस प्रकार के सभी वर्गो में विभिन्न श्रेणिया बनाकर जोडा गया था। आज यदि आरक्षण की मांग उठती है तो सभी दलों, अर्थ शास्तियों एवं अन्य का यह दावा झूठा है कि देश प्रगति कर रहा है। विकास हो रहा है। हम आगे बढ रहे है। वास्तव में ऐसा होता है तो आरक्षण से स्वतः लोग दूर जाते, इसे समाप्त करने की मांग करते। जबकि सारा कुछ इसके विपरित हो रहा है। आरक्षण आन्दोलनों में किसी भी दल का नैतृत्व निकम्मा तथा नकारा हो जाता है। आरक्षण आन्दोलनों से जो कुछ उभरा है वह इतना भयावह है कि डर लगता है। बडे विशाल जाति समूह एक विद्रोही का रूप अख्तियार करे। बसे जलावे, रेल ट्रेक तोडे, 10-15 दिन तक शव रखे रहे, आत्मदाह हो जाये, धमकिया दी जावे। यह सब अलोकतान्त्रिक उपाय होते है। विशाल जाति समूह की दबाव राजनीति के सामने सरकारे, सत्ता-पुलिस लाचार होती है। न्याय प्रियता, अन्य का सुख चैन, जीवन का अधिकार इस कथित बहुमती विद्रोह, तानाशाही या अदैवीय कृत्य से खो जाता है। रक्षक मौन है। भक्षक कृत्य से सक्रिय है। अब गलत काम का पुरस्कार भी है। साहयता है। कैसे-कैसे मानदण्ड, नौकरी भी है। कानून की अवज्ञा हिसंक ढंग से करो, अराजकता उत्पन्न करो, उसके रक्षक होने का दावा करो।
सरकारे भी झुकती है। वोट की ताकत ऐसी है कि भारत मां को डायन कहने वाले, उच्चतम न्यायालय की अवमानना करने वाले मंत्री बनते है। इस देश में इसी प्रकार रावणीवृति का गुणगान होता है। उसकी प्रशस्ति होकर महिमा मण्डन किया जाता है। कंस को सहारा जाता है। तब बिचारे हिटलर-मुसोलीनी, ओसामा बिन लादेन को आपराधी क्यों करे।
आज के आरक्षण आन्दोलन, आरक्षण से ही उत्पन्न सामाजिक राजनीतिक तथा आर्थिक विषमता की उपज है। इस पर समाज विज्ञान की दृष्टि से गंभीर विचार की आवश्यकता है।
जाटों के आरक्षण से राजपूत उद्वेलित क्यों हुआ? गुर्जरों ने एस.टी. आरक्षण की मांग क्यांे की? इसके मूल में सरकारी नौकरी की बजाय राजनैतिक पद पाने की लालसा ज्यादा है। आरक्षण के आधार पर सरपंच, प्रधान, प्रमुख आदि के पद जब मिल जाते है तो उसको लेकर विवाद भी होते है। विवाद का मूल कारण बढता हुआ जातिवाद है। जातिवाद के आधार पर पनपता पक्षपात है। भाई-भतीजा वाद है। जिस कारण बार-बार विरोध होता है।
आरक्षण ने योग्यता का गला घोटा है। आरक्षण पर पुनर्विचार करने का अब समय आ गया है। सवाल यह उठता है कि क्या मायावती, रामविलास पासवान, रामदास आठवाले को आरक्षण की क्या जरूरत है। इसी तरफ से लालू प्रसाद यादव मूलायमसिंह यादव, नितीष कुमार, सुषील कुमार मोदी को आरक्षण की क्या आवष्यकता है। जो लोग आरक्षण का लाभ लेकर आयकर देने की स्थिति में आ गये है। उन सब लोगांे से यह लाभ छिन जाना चाहिए। राजस्थान में एस.टी. के आरक्षण का लाभ जिस समुदाय को मिलना चाहिए था वह सिरोही, डूंगरपुर, बांसवाडा, चित्तौड, प्रतापगढ़ के समुदाय के लोग आज भी अत्यंत गरीबी की हालत में है। पिछडे है। षिक्षा के पर्याप्त साधन नहीं है। आरक्षण का लाभ जिस मीना समाज ने प्राप्त किया। वे सभी लोग जागीरदार मीना रहे है। इस कारण से प्रारम्भ से ही इनमें षिक्षा का स्तर ठीक था। फिर आरक्षण का साथ मिल गया। लोग आगे बढ गये। इसी क्षैत्र में इसी तरह के सामाजिक आधार वाला गुर्जर समाज आरक्षण का लाभ नहीं मिलने से साठ साल में अपने समान समाज से पिछड गया। यही विवाद की जड़ है। आरक्षण अब सामाजिक समरसता का वाहक नहीं होकर अब समाज में विषमता उत्पन्न करने में कारण बन रहा है। सभी लोग मिलकर टूटते समाज को बचाने के लिए इस पर चिन्तन करे।
अभी गुर्जर आन्दोलन के समय भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक से पूछा तो उन्होने कहा कि मजा आ रहा है। इससे हमारी नेतृत्व परिवर्तन की मांग पूरी हो जायेगी। किसी ने कहा कि हिन्दू मर गए। इस प्रकार हर समय आरक्षण किसी न किसी का बलिदान लेकर ही चला है।
आज आरक्षण पर समग्र रूप से व्यापक चिन्तन का समय आ चुका है। इसके स्वरूप पर राष्ट्रीय बहस का समय का चुका है। अभी गुर्जर आरक्षण आन्दोलन की आग में जब राजस्थान तप रहा था। उस समय सबसे अधिक आश्चर्य मुझे पूज्य संत रविशंकर महाराज के वक्तव्य पर हुआ कि वे भी यह कह बेठे कि गुर्जरों की मांग उचित है, परन्तु क्यों? वस्तुतः आरक्षण जिनको नहीं मिला, वे इसको हर हालत में प्राप्त करना चाहते है। जिनको मिल गया वे सब पिढीयों तक इसे अपने तक सिमित रखना चाहते है। आरक्षण पर उच्चतम न्यायालय का राइडर 50 प्रतिशत है। उच्चतम न्यायालय के राइडर को कई प्रान्तों ने तोड दिया, उसे संविधान संशोधन कर समर्थन दिया गया। वैसे सभी नेताओं का शगल बयानबाजी होता है। इससे कोई अछूता नहीं है।
आरक्षण देने का आधार सामाजिक भेदभाव, आर्थिक पिछडापन तथा इससे उत्पन्न होती विषमता, हीन भावना, कमजोरी था। इस प्रकार के सभी वर्गो में विभिन्न श्रेणिया बनाकर जोडा गया था। आज यदि आरक्षण की मांग उठती है तो सभी दलों, अर्थ शास्तियों एवं अन्य का यह दावा झूठा है कि देश प्रगति कर रहा है। विकास हो रहा है। हम आगे बढ रहे है। वास्तव में ऐसा होता है तो आरक्षण से स्वतः लोग दूर जाते, इसे समाप्त करने की मांग करते। जबकि सारा कुछ इसके विपरित हो रहा है। आरक्षण आन्दोलनों में किसी भी दल का नैतृत्व निकम्मा तथा नकारा हो जाता है। आरक्षण आन्दोलनों से जो कुछ उभरा है वह इतना भयावह है कि डर लगता है। बडे विशाल जाति समूह एक विद्रोही का रूप अख्तियार करे। बसे जलावे, रेल ट्रेक तोडे, 10-15 दिन तक शव रखे रहे, आत्मदाह हो जाये, धमकिया दी जावे। यह सब अलोकतान्त्रिक उपाय होते है। विशाल जाति समूह की दबाव राजनीति के सामने सरकारे, सत्ता-पुलिस लाचार होती है। न्याय प्रियता, अन्य का सुख चैन, जीवन का अधिकार इस कथित बहुमती विद्रोह, तानाशाही या अदैवीय कृत्य से खो जाता है। रक्षक मौन है। भक्षक कृत्य से सक्रिय है। अब गलत काम का पुरस्कार भी है। साहयता है। कैसे-कैसे मानदण्ड, नौकरी भी है। कानून की अवज्ञा हिसंक ढंग से करो, अराजकता उत्पन्न करो, उसके रक्षक होने का दावा करो।
सरकारे भी झुकती है। वोट की ताकत ऐसी है कि भारत मां को डायन कहने वाले, उच्चतम न्यायालय की अवमानना करने वाले मंत्री बनते है। इस देश में इसी प्रकार रावणीवृति का गुणगान होता है। उसकी प्रशस्ति होकर महिमा मण्डन किया जाता है। कंस को सहारा जाता है। तब बिचारे हिटलर-मुसोलीनी, ओसामा बिन लादेन को आपराधी क्यों करे।
आज के आरक्षण आन्दोलन, आरक्षण से ही उत्पन्न सामाजिक राजनीतिक तथा आर्थिक विषमता की उपज है। इस पर समाज विज्ञान की दृष्टि से गंभीर विचार की आवश्यकता है।
जाटों के आरक्षण से राजपूत उद्वेलित क्यों हुआ? गुर्जरों ने एस.टी. आरक्षण की मांग क्यांे की? इसके मूल में सरकारी नौकरी की बजाय राजनैतिक पद पाने की लालसा ज्यादा है। आरक्षण के आधार पर सरपंच, प्रधान, प्रमुख आदि के पद जब मिल जाते है तो उसको लेकर विवाद भी होते है। विवाद का मूल कारण बढता हुआ जातिवाद है। जातिवाद के आधार पर पनपता पक्षपात है। भाई-भतीजा वाद है। जिस कारण बार-बार विरोध होता है।
आरक्षण ने योग्यता का गला घोटा है। आरक्षण पर पुनर्विचार करने का अब समय आ गया है। सवाल यह उठता है कि क्या मायावती, रामविलास पासवान, रामदास आठवाले को आरक्षण की क्या जरूरत है। इसी तरफ से लालू प्रसाद यादव मूलायमसिंह यादव, नितीष कुमार, सुषील कुमार मोदी को आरक्षण की क्या आवष्यकता है। जो लोग आरक्षण का लाभ लेकर आयकर देने की स्थिति में आ गये है। उन सब लोगांे से यह लाभ छिन जाना चाहिए। राजस्थान में एस.टी. के आरक्षण का लाभ जिस समुदाय को मिलना चाहिए था वह सिरोही, डूंगरपुर, बांसवाडा, चित्तौड, प्रतापगढ़ के समुदाय के लोग आज भी अत्यंत गरीबी की हालत में है। पिछडे है। षिक्षा के पर्याप्त साधन नहीं है। आरक्षण का लाभ जिस मीना समाज ने प्राप्त किया। वे सभी लोग जागीरदार मीना रहे है। इस कारण से प्रारम्भ से ही इनमें षिक्षा का स्तर ठीक था। फिर आरक्षण का साथ मिल गया। लोग आगे बढ गये। इसी क्षैत्र में इसी तरह के सामाजिक आधार वाला गुर्जर समाज आरक्षण का लाभ नहीं मिलने से साठ साल में अपने समान समाज से पिछड गया। यही विवाद की जड़ है। आरक्षण अब सामाजिक समरसता का वाहक नहीं होकर अब समाज में विषमता उत्पन्न करने में कारण बन रहा है। सभी लोग मिलकर टूटते समाज को बचाने के लिए इस पर चिन्तन करे।
रविवार, 5 अप्रैल 2009
पढ़ो और समझो
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीष श्री मार्कण्डेय काटजु का यह आलेख देष की वर्तमान दषा तथा दिषा पर एक सटीक चिंतन को प्रकट करता है जो आॅल इण्डिया रिपोर्टर में मार्च अंक में छपा है। वहीं से इसे आभार सहित लिया है। आप सब लोग इसे पढ़कर विचार करे। इतना ही निवेदन है।
Today India is facing gigantic problems. In Andhra Pradesh, Maharashtra, etc. farmers and weavers are committing suicide regularly. Prices of essential commodities are sky rocketing. Unemployment has become massive and chronic, the educated youth can see only darkness in their lives. Water and electricity shortage is widespread. Corruption and fraud are seen everywhere, even in the highest places. Medicines and medical treatment have become prohibitively expensive for the masses. Housing is scarce. The educational system has gone haywire. Law and order has collapsed in many parts of the country where criminals and mafia are calling the shots.
In this situation the role of art, literature and the media in India has become of great importance. An attempt has therefore been made to analyze them.
The Role of Art and Literature:
There are broadly two theories about art and literature. The first is called ‘art for art’s sake’ and the second is called ‘art for social purpose’.
According to the first theory, art and literature are only meant to create beautiful or entertaining works to please and entertain people and artists themselves, and they are not meant to propagate social ideas. If art and literature is used for propagating social ideas it ceases to be art and becomes propaganda. Proponents of this view are Keats, Tennyson, Ezra Pound and T. S. Eliot in English literature, Edgar Allan Poe in American literature, Agyeya and the ‘Reetikal’ and ‘Chayavadi’ Poets in Hindi literature, Jigar Moradabadi in Urdu literature and Togore in Bengali literature.
The other theory is that art and literature should serve the people help them in their struggle for a better life, by arousing the people’s emotions against oppression and injustice and increasing their sensitivity regarding the people’s sufferings. Proponents of this school are Dickens and George Bernard Shaw in English literature, Walt Whitman, Mark Twain, Harriet Beacher Stowe, Upton Sinclair and John Steinbeck in American literature, Balzac, Stendhal, Flaubert and Victor Hugo in French, Goethe, Schiller and Erich Maria Remarque in German, Cervantes in Spanish, Tolstoy, Gogal, Dostoevsky and Gorki in Russian, Premchand and Kabir in Hindi, Sharat Chandra Chattopadhyaya and kaze Nazrul Islam in Bengali and Nazir, Faiz. Josh and Manto in Urdu.
Which of these two theories should be adopted and followed by artists and writers in India today?
Before attempting to answer this question in necessary to clarify that there have been very great artists and writers in both these schools. For instance. Shakespeare and Kalidas can be broadly classified as playwrights belonging to the first school i.e. ‘art for art’s sake’. Their plays serve no social purpose beyond providing entertainment and understanding of human impulses and motivations. Though he was basically a realist, Shakespeare had no intention of intention of reforming society or combating social evils. Yet undoubtedly Shakespeare is an artist of the highest rank. One is simply amazed by his insight and portrayal of human psychology and the springs of human action. Whether it be his Tragedies or Histories or Comedies, one is amazed and wonderstruck by his depiction of human nature and human motivations. Be it Hamlet, Macbeth, King Lear, Falstaff, Julius Caesar or Iago – these are all characters so full-blooded that we can recognize them from our own experience as actual human beings from life.
Similarly, ‘Meghdut’ of Kalidas is nature and love poetry at its highest. The depictions of the North Indian countryside which Kalidas gives, is astonishing in its sheer beauty. Even Wordsworth, the English nature poet, cannot come anywhere near it. Nevertheless Kalidas has no social purpose in his works.
On the other hand, George Bernard Shaw writes his plays almost exclusively with a social purpose in mind – to combat social evils and reform society. Whether it is ‘Major Barbara’ or ‘The Doctor’s Dilemma’, or ‘Mrs. Warren Profession’ or ‘Misalliance’ or Captain Brassbound’s Conversion’, his plays are a powerful denunciation of social injustices and evils. Similarly, Dickens in his novels attacks the social evils in England in his time e.g. the terrible conditions of schools, jails, orphanages, the judicial system, etc.
Shakespeare or Shaw, Who is greater as an artist ? The first represents ‘art for art’s sake’, the second ‘art for social purpose’. We shall attempt an answer, but a little later.
Literature - the art of the word, the art which is closest to thought – is distinguished from other forms of art (e.g. painting and music) by the greater emphasis on thought content as compared to form. On the other hand, an art such as classical music may be almost entirely devoted to creating a mood rather than arousing any thought. For instance, the main form of serious North Indian classical music which is called ‘Khyal’ has hardly any thought content (since very few words are used in it), but it has an almost unbelievable power of creating a mood and arousing aesthetic feelings – whether it is the ‘raag’ of the rainy season called ‘mother’ (there are many varieties of malhars – the main one being ‘ mian-ka-malhar’, thought I am personally more fond of ‘megh malhar’) which can make one feel that it is raining, or the morning raags like ‘ Jaunpuri’, ‘Todi’, ‘Bhairav’ etc. which gently wake you up, or night raags like ‘Darbari, or ‘Malkauns’ (called ‘hindole’ in Karnatac music) which gently put you to sleep, or a raag like ‘Bhairavi’ Which can be sung (or played) at any time and in any season, and is astonishing for its sheer beauty, or a large variety of other raags which create other types of moods. There are other styles of North Indian classical music like ‘Thumri’ in Which in more thought words than ‘Khayal’. However, there is no style or raag in North Indian or Karnatac classical music which arouses the emotion of fighting against social injustices. It is pure art for art’s sake, and yet it is undoubtedly very great art.
Art critics often regard the two basic trends or tendencies in art and literature as realism and romanticism. The truthful, undistorted, depiction of people and their social conditions is called realism. As regards romanticism, the emphasis in it is on flights of imagination, passion and emotional intensity.
Both realism and romanticism can be either passive or active. Passive realism usually aims at a truthful depiction of reality without preaching anything e.g. the novels of Jane Austen, George Eliot or the Bronte Sisters. In this sense it can be called socially neutral. However, sometimes, passive realism preached fatalism, passivity, nonresistance to evil, suffering, humility, etc. An example of this is Tolstoy’s depiction of the meek peasant Platon Karatayev in ‘War and Peace’ who humbly and cheerfully accepts his fate, or in Thomas Hardy’s pessimistic novels (e.g. ‘Tess’, Far from the madding Crowd’, et.). Some writers were initially active but later became passive, e.g. Dostoyevski who in ‘Crime and Punishment’, Brothers Karamazov’, ‘The Idiot’ etc. Powerfully expressed the rebellion of the individual against the forces fettering him, but ended up by calling ‘proud man’ to humility. On the order hand, a earlier novel ‘War and Peace’, but became a social reformer in his later work ‘Resurrection’.
Dickents, Victor Hugo, Maxim Gorkui, Sharat Chandra, etc. belong to the school of active realists. They oppose fatalism, passivity and nor-resistance to evil, and instead inspire people to fight against social evils. For instance in ‘Mother’, Gorkidescribes the transformation of the oppressed. In it men and woman of the Russian common people straighten their backs, purge their souls of the traces left by centuries of oppression, and of everything that suppressed or distorted the sterling potential in human beings which was only waiting to be liberated. Pavel Vlasov and his mother are such people. Similarly, in the stories and novels of the great Bengali writer Sharat Chandra Chattopadhyaya we find a powerful attack on the oppression of woman and against the caste system (see’Shrikant’, ‘Brahman ki Beti’, ‘Gramin Samaj’, etc.).
The strength of passive realism lay in its exposure of human motivation and social evils, but its weakness lay in its lack of positive principles or ideals (see the works of Zola, Taine, etc.). This literature was valuable because of its truthful approach to reality, concentrating on meticulous description of the visible and real (e.g. Henry Fielding’s ‘Tom Jones’, which is regarded as the first realistic noval) but is showed no way out to the people. It criticzed everything but asserted nothing. And it often viewed man from a fatalistic point of view, as a mere passive product of his surroundings, helpless and incapable of changing his social conditions.
Passive and active realism can both serve a social purpose. But whereas passive realism often preaches fatalism, pessimism and uselessness of endeavours to improve society, active realism is optimistic, characterized by its solicitude and concern for the people, inspiring them to strive against their plight and improve their social conditions.
In great writers like Shakespeare, Balzac, Tolstory or Mirza Ghalib it is often difficult to define with sufficient accuracy whether they are romantics or realists. Both trends merge in their works, and in fact the highest art is often a combination of the two.
Romanticism, like realism, can be either passive or active. Passive romanticism attempts to divert people from reality into a world of pure fantasy or illusions, or to a fruitless preoccupation with one’s own inner world, with thought about the ‘fatal riddle of life’ or about dreams of love and death. Its characters may be knights, princes, demons, fairies, etc. who exist in a world of make believe (as in the novels of the Hindi writer Devki Nandan Kharti e.g. ‘Chandrakants Santiti’, Bhoothnath’, etc. which were very popular at one time.) Much of the ‘reetikal’ Hindi poetry, which was mainly written to please kings and princes, and which deals with subjects like beauty (shringar) and love, belongs to this category. Passive romanticism thus hardly serves any social purpose.
Active romanticism, on the other hand, attempts to srouse man against the evils in society, e.g. Shelley’s ‘Prometheus Unbound’, Heine’s ‘Enfant Perdu’, Gorki’s ‘Song of the Stormy Petrel’ and the poem’s of the great Urdu writer Faiz. It thus clearly serves a social purpose. Active romanticism rises above reality, not by ignoring it, but by seeking to transform it. It regards literature as having a greater purpose than merely to reflect reality and depict existing things. Rousseau’s novels ‘Emile’ and ‘New Heloise’ are good examples of this school.
It may also be mentioned the ‘art for social purpose’ may be expressed not always in direct way, but also sometimes in an indirect, roundabout, or obscure way, e.g. by satire. In this connection, reference can be made to Jonathan Swife’s ‘Gulliver Travel’ or ‘ A Tale of a Tub’, Lewis Carrol’s ‘Alice in Wonderland’, Cervantes’, ‘Don Quixote’, Voltaire’s ‘Candide’ and ‘Zadi’ etc. Much of Urdu poetry, which mostly serves a social purpose (as it attacks oppressive customs and practices, like the poetry of kabir) is expressed not in a direct, but in an indirect way, e.g. the works of Mis, Ghalib, Faiz, etc.
Similarly, ‘art for social purpose’ can also be in a religious garb e.g. much of the Bhakti poetry in Hindi.
We now come back to the questions posed earlier. Should artists and writers in India follow the school of ‘art for art’s sake’ or ‘art for social purpose’? As mentioned earlier, both suhools have produced great artists and writers. What we have to think of, however, is which school would be more beneficial to our country in today’s historical situation. Thus the question who is greater as an artist, Shakespeare or Shaw (I personally think Shakespeare is greater) is not very relevant in India today.
In my opinion in a poor country like India it is the second theory (‘art for social purpose’) alone which can be acceptable today. Our country is facing the tremendous challenge of abolishing poverty, unemployment, inflation, ignorance, casteism, communalism, and other social evils, and hence artists and writers must join the ranks of those who are struggling for a better India, they must inspire the people by their writings, and write oppression and injustice.
However, what is the scenario before us today? The truth is that there is hardly any good art and literature today. Where is the Sharat Chandra or Premchand or Faiz of today ? Where is the Kabir or Dickens of tistic and literary vacuum. Everything seems to have become commercialized. Writers write not for highlighting the plight of the masses but only to earn some money, for the TV or Films.
Some Hindi writers complain that Hindi Magazines are closing down. Have these people ever thought why? Evidently, no one is interested in reading what he or she write because they do not depict the people’s sufferings, and do not inspire people to struggle for a better life.
When Maxim Gorky, the great Russian writer, used to step onto the streets of Russia he used to be mobbed by the people, because he was so much loved by the people as he wrote about their lives and championed their cause. Can a Hindi writer say that the same thing happens to him when he steps onto a street in India? When writers get out of touch with the people and live no one wants to read what they write.
Today the people in India are thirsty for good literature. If someone writers about the people’s real problem it will spread like wildfire. But are our writers doings this? If not, why do they complain that Hindi magazines are closing down? Art and Literature must serve the people. Writers and artists must have genuine sympathy for the people and depict their sufferings. And not only that, like Dickens and Shaw in England, Rousseau and Valtaire in Frence, Thomas Paine and Walt Whitman in America, Chernyshevsky and Gorki in Russia and Sharat Chandra and Nazrul Islam in Bengal they must inspire people to struggle for a better life, a life which can be really called a human existence and to create a better world, free of injustices, social and economic. Only then will the people respect them.
The concept of ‘art for social purpose’ in its active sense that is in the sense of using art and literature for reforming society, is largely of recent origin. It could hardly arise prior to the Industrial Revolution because up to the feudal age the thought that men could improve or change their social condition by their own effort was rare. The belief up to the feudal times was that what ever has existed or will in future is ordained by God or Destiny and man has no role in this connection. It was only after the Industrial Revolution that the thought that man can change his social conditions with the help of science and scientific thinking could arise. Hence almost all art up to the feudal age (e.g. Sanskrit verse and drama) was art for art’s sake, or else art for social purpose only in the passive sense, that his lot ordained by God or Destiny.
Now that the scientific age in the true sense has dawned, and man can change his social conditions by his own efforts, art, too, should help in this great endeavour. Art for art’s sake in poor countries like India in which the vast massed live in poverty and other terrible social conditions, really amounts to escapism.
I would like to appeal to writers in Hindi, Urdu and other Indian languages to use simple language. Hindu and Urdu should both come closer to Kharibli (or Hindustani), which is the people’s language. Often when reading a Hindi book one finds it difficult to understand what in written because it is in very difficult (klisht), language. The same is true of some Urdu writers. But if what is being said or written is not even comprehensible what time speeches of Winston Churchill or in the stories of Premchand and Sharat Chandra.
Having dealt with the role or art and literature we may now consider the role of the media.
The Role of the Media :
What do we see on TV these days? Some channels show film stars, pop music, disco and fashion parades (often with scantily clad young women), astrology, or cricked. Is it not a cruel irony and an affront to our poor people that so much time (and money) is spent on showing cricket, film stars, disco dancing and pop music? What have the Indian masses, who are facing terrible economic problems, to do with cricket, film stars, fashion parades, disco and pop?
I am constrained to say that the Indian media (particularly television) today is largely acting irresponsibly and is not serving the Indian people in its struggle against poverty, unemployment, and other social evils, as it should. Instead, its main aim seems to have become to make money for some people and/or manipulate people’s minds in the wrong direction, away from the real issues facing the people.
Historically, the media was born as an organ of the people against feudal oppression In Europe, the media played a major role in the transformation of feudal society to a modern one. Everyone is aware of the great role the print media played British, American and French Revolutions. The only media at that time was the print media, and this was used by great writers like Rousseau, Voltaire, Thomas Paine, Junius, John Wilkes, etc, in the fight of the people against feudalism despotism. Everyone knows of the great stir created by Thomas Paine’s pamphlet ‘Commonsense’ during the American Revolution, or of the letters of Junius during the reign of the despotic George III.
The media became a powerful tool in the hands of the people at that time because the people could not express themselves through the established organs of power since these organs were in the hands of feudal and despotic rulers. Hence the people had dot create new organs which would serve them. It is for this reason that the print media became and America it represented the voice of the future, as contrasted to the feudal or despotic organs which wanted to preserve the status quo in society.
In the 20th century other types of media have emerged e.g. radio and T.V. (the electronic media).
What should be the role of the media? This is a matter of great importance to our country today when it is facing such massive problems of poverty, unemployment, corruption, etc.
To my mind, underdeveloped countries like India the media has a great responsibility of fighting against backward ideas like casteism and communalism, and help the people in their struggle against poverty and other social evils. Since a large section of the people is backward and ignorant it is all the more necessary that modern ideas must be brought to them and their backwardness removed tso that they cecome part of enlightened India. The media has a great responsibility in this respect.
Underdeveloped countries like India are passing through a transitional age, between feudal society and modern, industrial society. This is a very painful and agonizing period, A study of the history of England of 17th and 18th Centuries and of France of the 18th and 19th Centuries, shows that the transitional period was full of turbulence, turmoil, revolutions, intellectual ferment, etc. It was only after going through his fire that modern society emerged in Europe. India is presently going through this fire. For instance, the barbaric ‘honour killings’ in Western U.P. districts like Meerut and Muzaffarnagar of young men and women of different castes who get married or wish to get married, etc. show how backward we still are, full of casteism and communalism.
Our national aim must therefore be to get over this transitional period as quickly as possible, reducing the agony which is inevitable in this period. Our aim must be to crate India as a modern, powerful, industrial State, for only then will we be able to provide for the welfare of our people and get respect in the world community.
Today the real world is cruel and harsh. It respects power, not poverty or weakness. When China and Japan were poor nations the Western nations. Today nobody dares to call them that as they are strong industrial national. Similarly, if we wish our country to get respect in the comity of nations we must make it highly industrialized and prosperous. For this purpose a powerful cultural struggle, that is, a struggle in the realm of ideas must be waged by our patriotic, modern minded intelligentsia. This cultural struggle must be waged by combating feudal backward ideas e.ge. casteism and communalism and replacing them with modern, scientific ideas among the masses.
Art, literature and the media all have an extremely important role in this cultural struggle, as already mentioned above. But are they really performing this role?
No doubt the media sometimes refers to the farmers suicide in Maharashtra, the price rise, etc. but this occupies only a very small part of its coverage (may be 5 to 10 percent), while most of the coverage is given to cricket, film stars, astrology and disco dancing.
The sad truth is that in India there is a total discontent between the mass media and the mass reality. I am giving below a few facts from a speech delivered by Mr. P. Sainath, Rural Affairs Editor of ‘The Hindu’ and Magsaysay award winner, on September 6, 2007
in Parliament House in the Speaker’s Lecture Series.
The mass reality in India (which has over 70% people living in rural area) is that rural India is in the midst of the worst agrarian crisis in four decades. Millions of livelihoods in the rural areas have been damaged or destroyed in the last 15 years as a result of this crisis. which is because of the predatory commercialization of the country side and the reduction of all human values to exchange value. As a result, lakhs of farmers have committed suicide and millions of people have migrated, and migrating, form the rural areas to cities and towns in search of jobs that are not there. They have moved towards a status which is neither ‘worker ’ nor ‘farmer’ but many of them end up as domestic labourers or even criminals. We have been pushed towards corporate farming, a process by which farming is taken out of the hands of the farmers and positioned in the hands of the corporates. This process is not being achieved with guns, tanks, bulldozers and lathis. It is done by marking farming unviable for the millions of small family farm holders, due to the high cost of inputs (seed, fertilizer, power, etc.) and uneconomic prices.
India ranked 4th in the list of Dollar Billionaires but 126th in human development. This means that it is better to be a poor person in Bolivia (the poorest nation in south America) or Guatemala or Gabon rather than in India. 86.6 crore people (of the total of between 110 to 120 crore) in India exist in less than Rs. 200/- a day. Life expectancy in our nation is lower than it is in Bolivia, Kazakhstan and Mongolia. According to the National Sample Survey, the average monthly per capita expenditure of the India farm household is Rs,503/-. Out of that Rs.503/-, 55% is spent on food, 18% on fuel, clothing and footwear, leaving precious little amount to be spent on education or health. The world report of the Food and Agriculture Organization of the United Nations shows that from 1995-97 to 1999-2001, India added more newly hungry million than the rest of the world taken together. The average rural family is consuming 100 kgs. lees than what they were consuming earlier. Indebtedness has doubled in the past decade. Cultivation cost has increase exorbitantly and farming incomes have collapsed, leading to wire scale suicide by farmers.
While there were 512 accredited journalists covering the Lakme India Fashion Week, there were only six journalists to cover the suicides in Vidharbha. In that Fashion Week programme the models were displaying cotton garments, while the men and women who grew cotton were killing themselves at a distance of one hour’s flight from Nagpur in the Vidharbha region. Nobody told that story except one or two journalists locally.
Is the a responsible way for the Indian media to function? Should the media turn a Nelson’s eye to the harsh economic realities in which over 75% of our people are living, and concentrate on some ‘Potempkin villages’ where all is glamour and show biz? Is the Indian Media not behaving like Queen Marie Antoinette who, when told that the people did not have bread, said that they should eat cakes?
No doubt sometimes the media mentions about the farmers suicides in Maharashtra, the price rice in essential commodities etc. but the coverage for this is at most 5 to 10 percent of its total coverage, Whereas the bulk of its coverage goes to showing cricket, the life of film stars, pop music, fashion parades, astrology, etc. Is this not really trying to divert the attention of the Indian people from the real issues like film stars, disco dancing, cricket, pop music and fashion parades?
Some channels on TV show cricket day in and day out throughout the year. In India cricket is really the opium of the masses. The Roman Emperors used to say, “If you cannot give the people bread give them circuses”. This is precisely the approach of the Indian establishment. Keep the people involved in cricket so that they forget their economic and social plight. What is important is not price rise or unemployment or poverty or lack of housing or medicines, what is important is whether India has beaten New Zealand (or better still, Pakistan) in a cricket match, or whether Tendulkar or Ganguly have scored a century. Is this not sheer escapism?
To my mind, the role of art, literature and media in our country today must be to help the people in their struggle against poverty. unemployment and other social evils and to make a modern, powerful, industrial State.
For this purpose, scientific thinking should be promoted, as in my opinion science alone in the means for solving our country’s problems. And I may clarify here that by science I do not mean Physics, Chemistry and Biology alone, which must be spread widely among our people. Our people must develop rational, logical and questioning minds, and must abandon superstitions and escapism, and for this purpose the media can and must play a powerful role.
Many TV channels today show programmes on astrology day in and day out. In my opinion, astrilogy is superstition and total humbug. Even elementary common sense can tell us that the movement of the stars and planets have no rational connection with our lives and cannot determine whether one will become a lawyer or doctor or an engineer or will die at the age of 40, 50, or 60. Astrology is totally unscientific, but many TV channels actively propagate it. which is in my opinion against the national interest.
The nation is today passing through a terrible socio-economic crisis. Aritists, writers and media persons must start acting responsibly and help the people who are suffering terribly in solving their problems. And this they and do by focusing on the real issues which are basically economic and not by trying to divert the attention of the people from the real issues to non issues like film stars, cricket, astrology or disco dancing.
1. This was because up to the feudal age, production techniques did not change (or changed extremely slowly) for centuries or even thousands of years. Up to feudal times society was predominantly agricultural. Agriculture was done by backward techniques e.g. the tilling of the soil by the bullock in India and the horse in Europe. The cycle of production kept repeating itself again and again for centuries e.g. the kharif crop in the monsoons, the rabi crop in winter, then again the kharif crop next monsoon etc.
On the other hand, modern industrial society is characterized by the revolutionary nature of modern industry. After the Industrial Revolution, Which began in Western Europe in the 18th century and gradually spread all over the world, the method of production is constantly changing, due to new scientific discoveries and inventions. Thus while society was broadly static up to feudal times, it is dynamic and fast changing after the Industrial Revolution. This changed situation has given rise to the idea the now man can change and improve his social conditions. Earlier this idea was impossible or Utopian.
Today India is facing gigantic problems. In Andhra Pradesh, Maharashtra, etc. farmers and weavers are committing suicide regularly. Prices of essential commodities are sky rocketing. Unemployment has become massive and chronic, the educated youth can see only darkness in their lives. Water and electricity shortage is widespread. Corruption and fraud are seen everywhere, even in the highest places. Medicines and medical treatment have become prohibitively expensive for the masses. Housing is scarce. The educational system has gone haywire. Law and order has collapsed in many parts of the country where criminals and mafia are calling the shots.
In this situation the role of art, literature and the media in India has become of great importance. An attempt has therefore been made to analyze them.
The Role of Art and Literature:
There are broadly two theories about art and literature. The first is called ‘art for art’s sake’ and the second is called ‘art for social purpose’.
According to the first theory, art and literature are only meant to create beautiful or entertaining works to please and entertain people and artists themselves, and they are not meant to propagate social ideas. If art and literature is used for propagating social ideas it ceases to be art and becomes propaganda. Proponents of this view are Keats, Tennyson, Ezra Pound and T. S. Eliot in English literature, Edgar Allan Poe in American literature, Agyeya and the ‘Reetikal’ and ‘Chayavadi’ Poets in Hindi literature, Jigar Moradabadi in Urdu literature and Togore in Bengali literature.
The other theory is that art and literature should serve the people help them in their struggle for a better life, by arousing the people’s emotions against oppression and injustice and increasing their sensitivity regarding the people’s sufferings. Proponents of this school are Dickens and George Bernard Shaw in English literature, Walt Whitman, Mark Twain, Harriet Beacher Stowe, Upton Sinclair and John Steinbeck in American literature, Balzac, Stendhal, Flaubert and Victor Hugo in French, Goethe, Schiller and Erich Maria Remarque in German, Cervantes in Spanish, Tolstoy, Gogal, Dostoevsky and Gorki in Russian, Premchand and Kabir in Hindi, Sharat Chandra Chattopadhyaya and kaze Nazrul Islam in Bengali and Nazir, Faiz. Josh and Manto in Urdu.
Which of these two theories should be adopted and followed by artists and writers in India today?
Before attempting to answer this question in necessary to clarify that there have been very great artists and writers in both these schools. For instance. Shakespeare and Kalidas can be broadly classified as playwrights belonging to the first school i.e. ‘art for art’s sake’. Their plays serve no social purpose beyond providing entertainment and understanding of human impulses and motivations. Though he was basically a realist, Shakespeare had no intention of intention of reforming society or combating social evils. Yet undoubtedly Shakespeare is an artist of the highest rank. One is simply amazed by his insight and portrayal of human psychology and the springs of human action. Whether it be his Tragedies or Histories or Comedies, one is amazed and wonderstruck by his depiction of human nature and human motivations. Be it Hamlet, Macbeth, King Lear, Falstaff, Julius Caesar or Iago – these are all characters so full-blooded that we can recognize them from our own experience as actual human beings from life.
Similarly, ‘Meghdut’ of Kalidas is nature and love poetry at its highest. The depictions of the North Indian countryside which Kalidas gives, is astonishing in its sheer beauty. Even Wordsworth, the English nature poet, cannot come anywhere near it. Nevertheless Kalidas has no social purpose in his works.
On the other hand, George Bernard Shaw writes his plays almost exclusively with a social purpose in mind – to combat social evils and reform society. Whether it is ‘Major Barbara’ or ‘The Doctor’s Dilemma’, or ‘Mrs. Warren Profession’ or ‘Misalliance’ or Captain Brassbound’s Conversion’, his plays are a powerful denunciation of social injustices and evils. Similarly, Dickens in his novels attacks the social evils in England in his time e.g. the terrible conditions of schools, jails, orphanages, the judicial system, etc.
Shakespeare or Shaw, Who is greater as an artist ? The first represents ‘art for art’s sake’, the second ‘art for social purpose’. We shall attempt an answer, but a little later.
Literature - the art of the word, the art which is closest to thought – is distinguished from other forms of art (e.g. painting and music) by the greater emphasis on thought content as compared to form. On the other hand, an art such as classical music may be almost entirely devoted to creating a mood rather than arousing any thought. For instance, the main form of serious North Indian classical music which is called ‘Khyal’ has hardly any thought content (since very few words are used in it), but it has an almost unbelievable power of creating a mood and arousing aesthetic feelings – whether it is the ‘raag’ of the rainy season called ‘mother’ (there are many varieties of malhars – the main one being ‘ mian-ka-malhar’, thought I am personally more fond of ‘megh malhar’) which can make one feel that it is raining, or the morning raags like ‘ Jaunpuri’, ‘Todi’, ‘Bhairav’ etc. which gently wake you up, or night raags like ‘Darbari, or ‘Malkauns’ (called ‘hindole’ in Karnatac music) which gently put you to sleep, or a raag like ‘Bhairavi’ Which can be sung (or played) at any time and in any season, and is astonishing for its sheer beauty, or a large variety of other raags which create other types of moods. There are other styles of North Indian classical music like ‘Thumri’ in Which in more thought words than ‘Khayal’. However, there is no style or raag in North Indian or Karnatac classical music which arouses the emotion of fighting against social injustices. It is pure art for art’s sake, and yet it is undoubtedly very great art.
Art critics often regard the two basic trends or tendencies in art and literature as realism and romanticism. The truthful, undistorted, depiction of people and their social conditions is called realism. As regards romanticism, the emphasis in it is on flights of imagination, passion and emotional intensity.
Both realism and romanticism can be either passive or active. Passive realism usually aims at a truthful depiction of reality without preaching anything e.g. the novels of Jane Austen, George Eliot or the Bronte Sisters. In this sense it can be called socially neutral. However, sometimes, passive realism preached fatalism, passivity, nonresistance to evil, suffering, humility, etc. An example of this is Tolstoy’s depiction of the meek peasant Platon Karatayev in ‘War and Peace’ who humbly and cheerfully accepts his fate, or in Thomas Hardy’s pessimistic novels (e.g. ‘Tess’, Far from the madding Crowd’, et.). Some writers were initially active but later became passive, e.g. Dostoyevski who in ‘Crime and Punishment’, Brothers Karamazov’, ‘The Idiot’ etc. Powerfully expressed the rebellion of the individual against the forces fettering him, but ended up by calling ‘proud man’ to humility. On the order hand, a earlier novel ‘War and Peace’, but became a social reformer in his later work ‘Resurrection’.
Dickents, Victor Hugo, Maxim Gorkui, Sharat Chandra, etc. belong to the school of active realists. They oppose fatalism, passivity and nor-resistance to evil, and instead inspire people to fight against social evils. For instance in ‘Mother’, Gorkidescribes the transformation of the oppressed. In it men and woman of the Russian common people straighten their backs, purge their souls of the traces left by centuries of oppression, and of everything that suppressed or distorted the sterling potential in human beings which was only waiting to be liberated. Pavel Vlasov and his mother are such people. Similarly, in the stories and novels of the great Bengali writer Sharat Chandra Chattopadhyaya we find a powerful attack on the oppression of woman and against the caste system (see’Shrikant’, ‘Brahman ki Beti’, ‘Gramin Samaj’, etc.).
The strength of passive realism lay in its exposure of human motivation and social evils, but its weakness lay in its lack of positive principles or ideals (see the works of Zola, Taine, etc.). This literature was valuable because of its truthful approach to reality, concentrating on meticulous description of the visible and real (e.g. Henry Fielding’s ‘Tom Jones’, which is regarded as the first realistic noval) but is showed no way out to the people. It criticzed everything but asserted nothing. And it often viewed man from a fatalistic point of view, as a mere passive product of his surroundings, helpless and incapable of changing his social conditions.
Passive and active realism can both serve a social purpose. But whereas passive realism often preaches fatalism, pessimism and uselessness of endeavours to improve society, active realism is optimistic, characterized by its solicitude and concern for the people, inspiring them to strive against their plight and improve their social conditions.
In great writers like Shakespeare, Balzac, Tolstory or Mirza Ghalib it is often difficult to define with sufficient accuracy whether they are romantics or realists. Both trends merge in their works, and in fact the highest art is often a combination of the two.
Romanticism, like realism, can be either passive or active. Passive romanticism attempts to divert people from reality into a world of pure fantasy or illusions, or to a fruitless preoccupation with one’s own inner world, with thought about the ‘fatal riddle of life’ or about dreams of love and death. Its characters may be knights, princes, demons, fairies, etc. who exist in a world of make believe (as in the novels of the Hindi writer Devki Nandan Kharti e.g. ‘Chandrakants Santiti’, Bhoothnath’, etc. which were very popular at one time.) Much of the ‘reetikal’ Hindi poetry, which was mainly written to please kings and princes, and which deals with subjects like beauty (shringar) and love, belongs to this category. Passive romanticism thus hardly serves any social purpose.
Active romanticism, on the other hand, attempts to srouse man against the evils in society, e.g. Shelley’s ‘Prometheus Unbound’, Heine’s ‘Enfant Perdu’, Gorki’s ‘Song of the Stormy Petrel’ and the poem’s of the great Urdu writer Faiz. It thus clearly serves a social purpose. Active romanticism rises above reality, not by ignoring it, but by seeking to transform it. It regards literature as having a greater purpose than merely to reflect reality and depict existing things. Rousseau’s novels ‘Emile’ and ‘New Heloise’ are good examples of this school.
It may also be mentioned the ‘art for social purpose’ may be expressed not always in direct way, but also sometimes in an indirect, roundabout, or obscure way, e.g. by satire. In this connection, reference can be made to Jonathan Swife’s ‘Gulliver Travel’ or ‘ A Tale of a Tub’, Lewis Carrol’s ‘Alice in Wonderland’, Cervantes’, ‘Don Quixote’, Voltaire’s ‘Candide’ and ‘Zadi’ etc. Much of Urdu poetry, which mostly serves a social purpose (as it attacks oppressive customs and practices, like the poetry of kabir) is expressed not in a direct, but in an indirect way, e.g. the works of Mis, Ghalib, Faiz, etc.
Similarly, ‘art for social purpose’ can also be in a religious garb e.g. much of the Bhakti poetry in Hindi.
We now come back to the questions posed earlier. Should artists and writers in India follow the school of ‘art for art’s sake’ or ‘art for social purpose’? As mentioned earlier, both suhools have produced great artists and writers. What we have to think of, however, is which school would be more beneficial to our country in today’s historical situation. Thus the question who is greater as an artist, Shakespeare or Shaw (I personally think Shakespeare is greater) is not very relevant in India today.
In my opinion in a poor country like India it is the second theory (‘art for social purpose’) alone which can be acceptable today. Our country is facing the tremendous challenge of abolishing poverty, unemployment, inflation, ignorance, casteism, communalism, and other social evils, and hence artists and writers must join the ranks of those who are struggling for a better India, they must inspire the people by their writings, and write oppression and injustice.
However, what is the scenario before us today? The truth is that there is hardly any good art and literature today. Where is the Sharat Chandra or Premchand or Faiz of today ? Where is the Kabir or Dickens of tistic and literary vacuum. Everything seems to have become commercialized. Writers write not for highlighting the plight of the masses but only to earn some money, for the TV or Films.
Some Hindi writers complain that Hindi Magazines are closing down. Have these people ever thought why? Evidently, no one is interested in reading what he or she write because they do not depict the people’s sufferings, and do not inspire people to struggle for a better life.
When Maxim Gorky, the great Russian writer, used to step onto the streets of Russia he used to be mobbed by the people, because he was so much loved by the people as he wrote about their lives and championed their cause. Can a Hindi writer say that the same thing happens to him when he steps onto a street in India? When writers get out of touch with the people and live no one wants to read what they write.
Today the people in India are thirsty for good literature. If someone writers about the people’s real problem it will spread like wildfire. But are our writers doings this? If not, why do they complain that Hindi magazines are closing down? Art and Literature must serve the people. Writers and artists must have genuine sympathy for the people and depict their sufferings. And not only that, like Dickens and Shaw in England, Rousseau and Valtaire in Frence, Thomas Paine and Walt Whitman in America, Chernyshevsky and Gorki in Russia and Sharat Chandra and Nazrul Islam in Bengal they must inspire people to struggle for a better life, a life which can be really called a human existence and to create a better world, free of injustices, social and economic. Only then will the people respect them.
The concept of ‘art for social purpose’ in its active sense that is in the sense of using art and literature for reforming society, is largely of recent origin. It could hardly arise prior to the Industrial Revolution because up to the feudal age the thought that men could improve or change their social condition by their own effort was rare. The belief up to the feudal times was that what ever has existed or will in future is ordained by God or Destiny and man has no role in this connection. It was only after the Industrial Revolution that the thought that man can change his social conditions with the help of science and scientific thinking could arise. Hence almost all art up to the feudal age (e.g. Sanskrit verse and drama) was art for art’s sake, or else art for social purpose only in the passive sense, that his lot ordained by God or Destiny.
Now that the scientific age in the true sense has dawned, and man can change his social conditions by his own efforts, art, too, should help in this great endeavour. Art for art’s sake in poor countries like India in which the vast massed live in poverty and other terrible social conditions, really amounts to escapism.
I would like to appeal to writers in Hindi, Urdu and other Indian languages to use simple language. Hindu and Urdu should both come closer to Kharibli (or Hindustani), which is the people’s language. Often when reading a Hindi book one finds it difficult to understand what in written because it is in very difficult (klisht), language. The same is true of some Urdu writers. But if what is being said or written is not even comprehensible what time speeches of Winston Churchill or in the stories of Premchand and Sharat Chandra.
Having dealt with the role or art and literature we may now consider the role of the media.
The Role of the Media :
What do we see on TV these days? Some channels show film stars, pop music, disco and fashion parades (often with scantily clad young women), astrology, or cricked. Is it not a cruel irony and an affront to our poor people that so much time (and money) is spent on showing cricket, film stars, disco dancing and pop music? What have the Indian masses, who are facing terrible economic problems, to do with cricket, film stars, fashion parades, disco and pop?
I am constrained to say that the Indian media (particularly television) today is largely acting irresponsibly and is not serving the Indian people in its struggle against poverty, unemployment, and other social evils, as it should. Instead, its main aim seems to have become to make money for some people and/or manipulate people’s minds in the wrong direction, away from the real issues facing the people.
Historically, the media was born as an organ of the people against feudal oppression In Europe, the media played a major role in the transformation of feudal society to a modern one. Everyone is aware of the great role the print media played British, American and French Revolutions. The only media at that time was the print media, and this was used by great writers like Rousseau, Voltaire, Thomas Paine, Junius, John Wilkes, etc, in the fight of the people against feudalism despotism. Everyone knows of the great stir created by Thomas Paine’s pamphlet ‘Commonsense’ during the American Revolution, or of the letters of Junius during the reign of the despotic George III.
The media became a powerful tool in the hands of the people at that time because the people could not express themselves through the established organs of power since these organs were in the hands of feudal and despotic rulers. Hence the people had dot create new organs which would serve them. It is for this reason that the print media became and America it represented the voice of the future, as contrasted to the feudal or despotic organs which wanted to preserve the status quo in society.
In the 20th century other types of media have emerged e.g. radio and T.V. (the electronic media).
What should be the role of the media? This is a matter of great importance to our country today when it is facing such massive problems of poverty, unemployment, corruption, etc.
To my mind, underdeveloped countries like India the media has a great responsibility of fighting against backward ideas like casteism and communalism, and help the people in their struggle against poverty and other social evils. Since a large section of the people is backward and ignorant it is all the more necessary that modern ideas must be brought to them and their backwardness removed tso that they cecome part of enlightened India. The media has a great responsibility in this respect.
Underdeveloped countries like India are passing through a transitional age, between feudal society and modern, industrial society. This is a very painful and agonizing period, A study of the history of England of 17th and 18th Centuries and of France of the 18th and 19th Centuries, shows that the transitional period was full of turbulence, turmoil, revolutions, intellectual ferment, etc. It was only after going through his fire that modern society emerged in Europe. India is presently going through this fire. For instance, the barbaric ‘honour killings’ in Western U.P. districts like Meerut and Muzaffarnagar of young men and women of different castes who get married or wish to get married, etc. show how backward we still are, full of casteism and communalism.
Our national aim must therefore be to get over this transitional period as quickly as possible, reducing the agony which is inevitable in this period. Our aim must be to crate India as a modern, powerful, industrial State, for only then will we be able to provide for the welfare of our people and get respect in the world community.
Today the real world is cruel and harsh. It respects power, not poverty or weakness. When China and Japan were poor nations the Western nations. Today nobody dares to call them that as they are strong industrial national. Similarly, if we wish our country to get respect in the comity of nations we must make it highly industrialized and prosperous. For this purpose a powerful cultural struggle, that is, a struggle in the realm of ideas must be waged by our patriotic, modern minded intelligentsia. This cultural struggle must be waged by combating feudal backward ideas e.ge. casteism and communalism and replacing them with modern, scientific ideas among the masses.
Art, literature and the media all have an extremely important role in this cultural struggle, as already mentioned above. But are they really performing this role?
No doubt the media sometimes refers to the farmers suicide in Maharashtra, the price rise, etc. but this occupies only a very small part of its coverage (may be 5 to 10 percent), while most of the coverage is given to cricket, film stars, astrology and disco dancing.
The sad truth is that in India there is a total discontent between the mass media and the mass reality. I am giving below a few facts from a speech delivered by Mr. P. Sainath, Rural Affairs Editor of ‘The Hindu’ and Magsaysay award winner, on September 6, 2007
in Parliament House in the Speaker’s Lecture Series.
The mass reality in India (which has over 70% people living in rural area) is that rural India is in the midst of the worst agrarian crisis in four decades. Millions of livelihoods in the rural areas have been damaged or destroyed in the last 15 years as a result of this crisis. which is because of the predatory commercialization of the country side and the reduction of all human values to exchange value. As a result, lakhs of farmers have committed suicide and millions of people have migrated, and migrating, form the rural areas to cities and towns in search of jobs that are not there. They have moved towards a status which is neither ‘worker ’ nor ‘farmer’ but many of them end up as domestic labourers or even criminals. We have been pushed towards corporate farming, a process by which farming is taken out of the hands of the farmers and positioned in the hands of the corporates. This process is not being achieved with guns, tanks, bulldozers and lathis. It is done by marking farming unviable for the millions of small family farm holders, due to the high cost of inputs (seed, fertilizer, power, etc.) and uneconomic prices.
India ranked 4th in the list of Dollar Billionaires but 126th in human development. This means that it is better to be a poor person in Bolivia (the poorest nation in south America) or Guatemala or Gabon rather than in India. 86.6 crore people (of the total of between 110 to 120 crore) in India exist in less than Rs. 200/- a day. Life expectancy in our nation is lower than it is in Bolivia, Kazakhstan and Mongolia. According to the National Sample Survey, the average monthly per capita expenditure of the India farm household is Rs,503/-. Out of that Rs.503/-, 55% is spent on food, 18% on fuel, clothing and footwear, leaving precious little amount to be spent on education or health. The world report of the Food and Agriculture Organization of the United Nations shows that from 1995-97 to 1999-2001, India added more newly hungry million than the rest of the world taken together. The average rural family is consuming 100 kgs. lees than what they were consuming earlier. Indebtedness has doubled in the past decade. Cultivation cost has increase exorbitantly and farming incomes have collapsed, leading to wire scale suicide by farmers.
While there were 512 accredited journalists covering the Lakme India Fashion Week, there were only six journalists to cover the suicides in Vidharbha. In that Fashion Week programme the models were displaying cotton garments, while the men and women who grew cotton were killing themselves at a distance of one hour’s flight from Nagpur in the Vidharbha region. Nobody told that story except one or two journalists locally.
Is the a responsible way for the Indian media to function? Should the media turn a Nelson’s eye to the harsh economic realities in which over 75% of our people are living, and concentrate on some ‘Potempkin villages’ where all is glamour and show biz? Is the Indian Media not behaving like Queen Marie Antoinette who, when told that the people did not have bread, said that they should eat cakes?
No doubt sometimes the media mentions about the farmers suicides in Maharashtra, the price rice in essential commodities etc. but the coverage for this is at most 5 to 10 percent of its total coverage, Whereas the bulk of its coverage goes to showing cricket, the life of film stars, pop music, fashion parades, astrology, etc. Is this not really trying to divert the attention of the Indian people from the real issues like film stars, disco dancing, cricket, pop music and fashion parades?
Some channels on TV show cricket day in and day out throughout the year. In India cricket is really the opium of the masses. The Roman Emperors used to say, “If you cannot give the people bread give them circuses”. This is precisely the approach of the Indian establishment. Keep the people involved in cricket so that they forget their economic and social plight. What is important is not price rise or unemployment or poverty or lack of housing or medicines, what is important is whether India has beaten New Zealand (or better still, Pakistan) in a cricket match, or whether Tendulkar or Ganguly have scored a century. Is this not sheer escapism?
To my mind, the role of art, literature and media in our country today must be to help the people in their struggle against poverty. unemployment and other social evils and to make a modern, powerful, industrial State.
For this purpose, scientific thinking should be promoted, as in my opinion science alone in the means for solving our country’s problems. And I may clarify here that by science I do not mean Physics, Chemistry and Biology alone, which must be spread widely among our people. Our people must develop rational, logical and questioning minds, and must abandon superstitions and escapism, and for this purpose the media can and must play a powerful role.
Many TV channels today show programmes on astrology day in and day out. In my opinion, astrilogy is superstition and total humbug. Even elementary common sense can tell us that the movement of the stars and planets have no rational connection with our lives and cannot determine whether one will become a lawyer or doctor or an engineer or will die at the age of 40, 50, or 60. Astrology is totally unscientific, but many TV channels actively propagate it. which is in my opinion against the national interest.
The nation is today passing through a terrible socio-economic crisis. Aritists, writers and media persons must start acting responsibly and help the people who are suffering terribly in solving their problems. And this they and do by focusing on the real issues which are basically economic and not by trying to divert the attention of the people from the real issues to non issues like film stars, cricket, astrology or disco dancing.
1. This was because up to the feudal age, production techniques did not change (or changed extremely slowly) for centuries or even thousands of years. Up to feudal times society was predominantly agricultural. Agriculture was done by backward techniques e.g. the tilling of the soil by the bullock in India and the horse in Europe. The cycle of production kept repeating itself again and again for centuries e.g. the kharif crop in the monsoons, the rabi crop in winter, then again the kharif crop next monsoon etc.
On the other hand, modern industrial society is characterized by the revolutionary nature of modern industry. After the Industrial Revolution, Which began in Western Europe in the 18th century and gradually spread all over the world, the method of production is constantly changing, due to new scientific discoveries and inventions. Thus while society was broadly static up to feudal times, it is dynamic and fast changing after the Industrial Revolution. This changed situation has given rise to the idea the now man can change and improve his social conditions. Earlier this idea was impossible or Utopian.
रविवार, 29 मार्च 2009
वरूण गांधी बनाम धर्म निरपेक्षता
गत कुछ दिनों से टीवी तथा अन्य मिडिया साधनों में संजय गांधी के पुत्र वरूण गांधी का नाम चर्चा में है। अभी वरूण गांधी न्यायालय के आदेष से जेल में है। उन पर किसी जाति विषेष पर या मत विषेष पर टिप्पणी करने का आरोप है। यह भी आरोप है कि ऐसा करके उन्होने दो मतों में विद्वेष का भाव उत्पन्न किया। वरूण गांधी के जेल भेजे जाने पर मुझे राज ठाकरे का भाषण, व्यवहार तथा उनकी तुरंत होती जमानते याद आ गयी। वरूण गांधी न्यायालय के आदेष से जेल में है। न्यायालय किसी की जमानत लेने अथवा नहीं लेने का अधिकार रखता है। इस पर कोई टिप्पणी नहीं करते हुये तथा न्यायालय के प्रति सम्मान करते हुये राज ठाकरे तथा वरूण गांधी की टिप्पणियों में भेद खोजने का निरर्थक प्रयास करता रहा।
कांग्रेस वरूण गांधी की टिप्पणी से बहुत अधिक आहत है। ऐसा होना स्वाभाविक है। कांग्रेस उत्तर प्रदेष में अपना आधार खो चुकी है। कांगे्रस के नेता या युवराज राहुल गांधी कांगे्रस के लगातार सिमटते आधार को बचाने में असफल से नजर आते है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी में गांधी नेहरू परिवार का व्यक्ति नेता बनकर उभर जाये और उसे सभी लोग बधाई देने लगे। मिडिया सकारात्मक या नकारात्मक किसी भी रूप में उसका नाम बार-बार दोहराये तथा बार-बार उसका लाल रंग का कुर्ता पहना हुआ लम्बा तिलक लगा हुआ जय श्री राम का उद्घोष करता हुआ फोटो बताये तथा उसके पीछे नारें को लगाती भीड़ बताये तो कांगे्रस में दर्द होना स्वाभाविक है। मुझे यह दर्द समझ में नहीं आता। वरूण गांधी भाजपा के नेता है भाजपा की भाषा बोलेगें। वैसे भी कांगे्रस के पास उत्तर प्रदेष में गवाने के लिए क्या बचा है। कांगे्रस की समस्या यह है कि नेहरू गांधी परिवार की जिस विरासत के नाम पर वह अभी तक कुछ वोट जुटाती आयी है वह वोट कही भाजपा के साथ वरूण गांधी नहीं ले जाये। इन्दिरा गांधी के पौतेे के रूप में राहुल गांधी की जगह वरूण गांधी प्रोजेक्ट नहीं हो जाये। ऐसा हो गया तो कांग्रेस की नानी मर जायेगी।
वरूण गांधी ने कुछ गलत कहा है क्या? जिसे सुनकर चुनाव आयोग ने भाजपा को उन्हे उम्मीदवार न बनाने की सलाह दे दी। चुनाव आयोग की यह सलाह उसके क्षैत्राधिकार का अतिक्रमण है। चुनाव आयोग के कानून में किसी उम्मीदवार का नामांकन रद्द करने का अधिकार अवष्य है। वह भी उन हालात में जब वह निर्धारित योग्यता की पूर्ति नहीं करता हो। चुनाव आयोग ने भारत माता को डायन कहने वाले एक नेता के बारे में तो ऐसी सलाह नहीं दी। इसके अलावा हिन्दुओं के बारे में मनचाही अनर्गल टिप्पणी करने वाले लोगों पर कार्यवाही करने से सरकारे बचती रहती है। आतंकवादी विरोधी कठोर कानून एक मत विषेष के विरोध में नजर आते है। कष्मीरी पंडित कितने वर्षों से पीडित है। उनकी चिंता करना लाल झण्डे तथा कांग्रेस के लोगों को याद नहीं आता है। वरूण गांधी इस देष में खडे होकर यदि यह कहते है कि हिन्दु की तरफ उठने वाला हाथ काट दिया जायेगा तो क्या गलत है? यदि वह तालीबानी मानसिकता को लेकर कठोर टिप्पणी करते है तो क्या गलत करते है? मुझे कही बार लगता है कि आपातकाल में जिस ढंग से संजय गांधी को कुछ समझ में आया था। वैसा ही यह उनका पुत्र धीरे-धीरे समझ रहा है।
वरूण गांधी कष्मीरी पंडित गंगाधर नहर वाले के परिवार के है। भाजपा उनका यह परिचय देते हुये उनको कष्मीर में चुनाव प्रचार के लिए भेज सकती है। भारतीय राजनीति में युवा वरूण गांधी ने ष्ष्यामाप्रसाद मुखर्जी के बाद जो शंख नाद किया है वह स्वागत योग्य है। आज कष्मीर जैसा भी बचा है उसका धन्यवाद डाॅ मुखर्जी को है।
आने वाले चुनाव में भाजपा को स्पष्ट रूप से राष्ट्र हितों को सामने रखते हुये प्रचार करना चाहिए। उडीसा में यदि भाजपा अपने बुते पर सारी सीटों पर चुनाव लडती है तो फायदे में रहेगी। चुनाव परिणाम इसको स्पष्ट करेगें। मिडिया द्वारा वरूण गांधी का प्रचार करने से भाजपा को नरेन्द्र मोदी के बाद एक स्टार प्रचारक और मिल गया। तत्काल जमानत करवाकर पूरे देष में जय श्री राम का उद्घोष करते वरूण गांधी को भेजा जावे।
कांग्रेस वरूण गांधी की टिप्पणी से बहुत अधिक आहत है। ऐसा होना स्वाभाविक है। कांग्रेस उत्तर प्रदेष में अपना आधार खो चुकी है। कांगे्रस के नेता या युवराज राहुल गांधी कांगे्रस के लगातार सिमटते आधार को बचाने में असफल से नजर आते है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी में गांधी नेहरू परिवार का व्यक्ति नेता बनकर उभर जाये और उसे सभी लोग बधाई देने लगे। मिडिया सकारात्मक या नकारात्मक किसी भी रूप में उसका नाम बार-बार दोहराये तथा बार-बार उसका लाल रंग का कुर्ता पहना हुआ लम्बा तिलक लगा हुआ जय श्री राम का उद्घोष करता हुआ फोटो बताये तथा उसके पीछे नारें को लगाती भीड़ बताये तो कांगे्रस में दर्द होना स्वाभाविक है। मुझे यह दर्द समझ में नहीं आता। वरूण गांधी भाजपा के नेता है भाजपा की भाषा बोलेगें। वैसे भी कांगे्रस के पास उत्तर प्रदेष में गवाने के लिए क्या बचा है। कांगे्रस की समस्या यह है कि नेहरू गांधी परिवार की जिस विरासत के नाम पर वह अभी तक कुछ वोट जुटाती आयी है वह वोट कही भाजपा के साथ वरूण गांधी नहीं ले जाये। इन्दिरा गांधी के पौतेे के रूप में राहुल गांधी की जगह वरूण गांधी प्रोजेक्ट नहीं हो जाये। ऐसा हो गया तो कांग्रेस की नानी मर जायेगी।
वरूण गांधी ने कुछ गलत कहा है क्या? जिसे सुनकर चुनाव आयोग ने भाजपा को उन्हे उम्मीदवार न बनाने की सलाह दे दी। चुनाव आयोग की यह सलाह उसके क्षैत्राधिकार का अतिक्रमण है। चुनाव आयोग के कानून में किसी उम्मीदवार का नामांकन रद्द करने का अधिकार अवष्य है। वह भी उन हालात में जब वह निर्धारित योग्यता की पूर्ति नहीं करता हो। चुनाव आयोग ने भारत माता को डायन कहने वाले एक नेता के बारे में तो ऐसी सलाह नहीं दी। इसके अलावा हिन्दुओं के बारे में मनचाही अनर्गल टिप्पणी करने वाले लोगों पर कार्यवाही करने से सरकारे बचती रहती है। आतंकवादी विरोधी कठोर कानून एक मत विषेष के विरोध में नजर आते है। कष्मीरी पंडित कितने वर्षों से पीडित है। उनकी चिंता करना लाल झण्डे तथा कांग्रेस के लोगों को याद नहीं आता है। वरूण गांधी इस देष में खडे होकर यदि यह कहते है कि हिन्दु की तरफ उठने वाला हाथ काट दिया जायेगा तो क्या गलत है? यदि वह तालीबानी मानसिकता को लेकर कठोर टिप्पणी करते है तो क्या गलत करते है? मुझे कही बार लगता है कि आपातकाल में जिस ढंग से संजय गांधी को कुछ समझ में आया था। वैसा ही यह उनका पुत्र धीरे-धीरे समझ रहा है।
वरूण गांधी कष्मीरी पंडित गंगाधर नहर वाले के परिवार के है। भाजपा उनका यह परिचय देते हुये उनको कष्मीर में चुनाव प्रचार के लिए भेज सकती है। भारतीय राजनीति में युवा वरूण गांधी ने ष्ष्यामाप्रसाद मुखर्जी के बाद जो शंख नाद किया है वह स्वागत योग्य है। आज कष्मीर जैसा भी बचा है उसका धन्यवाद डाॅ मुखर्जी को है।
आने वाले चुनाव में भाजपा को स्पष्ट रूप से राष्ट्र हितों को सामने रखते हुये प्रचार करना चाहिए। उडीसा में यदि भाजपा अपने बुते पर सारी सीटों पर चुनाव लडती है तो फायदे में रहेगी। चुनाव परिणाम इसको स्पष्ट करेगें। मिडिया द्वारा वरूण गांधी का प्रचार करने से भाजपा को नरेन्द्र मोदी के बाद एक स्टार प्रचारक और मिल गया। तत्काल जमानत करवाकर पूरे देष में जय श्री राम का उद्घोष करते वरूण गांधी को भेजा जावे।
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